कौन कहता है हर मर्ज़ की दवा होती है
ये जो ज़ीस्त है ये तो यूँही फ़ना होती है
हम भी आते तो आते ही होते रूखसत
एक ख़िदमत न हमसे बजा होती है
तेरी आँखों में कभी देखी थी रज़ा मैंने
आज उन आँखों में एक सज़ा होती है
हम तो ढोते रहें साँसों को जेवर जैसे
अब ये जाना के ये बेवफ़ा होतीं हैं
चलते-चलते कहीं भटक भी गए तो क्या
मंज़िल एक ही तो सबको अता होती है
राहुल उपाध्याय । 19 फ़रवरी 2022 । सिएटल
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