मेरी रातों में, मेरे दिन में वो साथ रहती है
बस यही बात ज़माने को बुरी लगती है
मेरे गीतों में झलक उसकी सदा दिखती है
बस यही बात ज़माने को बुरी लगती है
मेरे हर तार में वो नज़र आती है
मेरी हर साँस में वो साँस ले आती है उसकी ख़ुशबू मेरे गीतों को जवां रखती है
बस यही बात ज़माने को बुरी लगती है
मैंने बचपन से उसे साथ-साथ देखा है
अपनी आँखों से उसे साफ़-साफ़ देखा है
उसकी रूनझून मेरे कानों में सदा रहती है
बस यही बात ज़माने को बुरी लगती है
जो कहूँ सच तो मैं सच में बुरा बनता हूँ
न कहूँ सच तो मैं बिक गया हूँ लगता हूँ
ये जो उलझन, परेशान न मुझे करती है
बस यही बात ज़माने को बुरी लगती है
राहुल उपाध्याय । 21 जून 2022 । सिएटल
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