Sunday, June 5, 2022

कब तक बहलाए मन कोई

कब तक बहलाए मन कोई 

हर रात शमा खूब रोती है 

जो आग नहीं बुझ पाती है 

वो और जवां हो जाती है 

जलती है, दहकती है हरदम

आँख नशीली हो जाती हैं 

सीने में धधकते अंगारे

मंगलसूत्र से नहीं वो दबते हैं

पल्लू हो कसा, सिन्दूर हो भरा

गाल पे लालिमा सब झुठलाती है 

फ़र्ज़ के डर से भींचे होंठ

ख़ुद-ब-ख़ुद खुल जाते हैं 

पेशानी तमतमा जाती है 

बदन पूरा तप जाता है 

हया गुम हो जाती है 

पाँव कहीं के कहीं पड़ने लगते हैं 

हाथ भी क्या-क्या खोज लाता है 

जहाँ जान नहीं थी, जी उठते हैं 

दोष-पाप सब तुच्छ हो जाते हैं 

क्या सही और क्या ग़लत 

ये विचार ही विकार लगते हैं 

स्वेद कण झिलमिला उठते हैं

कभी चमन में तो कभी स्वप्न में

अधरों से अधर मिल जाते हैं 

दिल से दिल मिल जाते हैं 


और आग बुझ के नहीं बुझती

जितनी बुझती, बढ़ जाती है 


राहुल उपाध्याय । 5 जून 2022 । सिएटल 


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