छ: तारीख़ आई और छ: तारीख़ गई
शमा के गीत मैं लिखता-गाता रहा
जो सब कुछ थी मेरी, दूर क्या गई
ठहाकों से मैं खुद को चलाता रहा
दुख भी नहीं कि ऐसा क्यूँ हुआ?
समय का मलहम खरा ही तो है
ज़ख़्म कहाँ कभी कोई रहा हरा
कैलेंडर न होता
तो दिन भी न गिनता
हो सौ कि हज़ार
फ़र्क़ ही न पड़ता
न भूला कुछ, न आया कुछ याद
उस जीव का बस रहा अहसास
न तस्वीर बोलती है
न तुलसी में है हरकत
साड़ी-किताबें सब बेजान पड़ी हैं
राहुल उपाध्याय । 7 जून 2022 । सिएटल
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