ये फ़ोन नहीं रक़ीब है
जो आपके क़रीब है
हुई क्या ख़ता भला
जो हम जुदा
ये क़रीब है?
आपकी उँगलियों पे क्या
नाचते हम न थे?
आपके रूखसार को क्या
चाहते हम न थे?
जो हम जुदा
ये क़रीब है?
कह के तो देखते
सोते-जागते हम भी साथ
आपकी ख़िदमत में क्या
भागते हम न थे?
क्यों हम जुदा
ये क़रीब है?
यूँ बार-बार उसे देखना
सहन हमें होता नहीं
आपकी आँखों में क्या
झाँकते हम न थे?
क्यों हम जुदा
ये क़रीब है?
हाँ हम मुफ्त के थे
और ये क़ीमती
ख़ता हुई क़ीमत अपनी
माँगते हम न थे
क्या इसीलिए
हम जुदा
ये क़रीब है
उतारती न नज़र से हमें
तो जानते हम किस तरह
कि ये चाहतें, ये वलवले
सब के सब मुहीब हैं
ज़िन्दगी के सलीब हैं
राहुल उपाध्याय । 11 मई 2021 । सिएटल
वलवले = मन की उमंगें
मुहीब = क्रूर, अत्याचारी, ज़ालिम बेरहम, भीषण, भयानक, कराल, विकट, डरावना, जिसे देखकर डर लगे
सलीब = सूली, पीड़ा, यातना, ज़ुल्म
2 comments:
वाह ! बहुत खूब
बहुत खूब
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