Tuesday, May 11, 2021

ये फ़ोन नहीं रक़ीब है

ये फ़ोन नहीं रक़ीब है

जो आपके क़रीब है

हुई क्या ख़ता भला

जो हम जुदा

ये क़रीब है?


आपकी उँगलियों पे क्या 

नाचते हम न थे?

आपके रूखसार को क्या

चाहते हम न थे?


जो हम जुदा

ये क़रीब है?


कह के तो देखते

सोते-जागते हम भी साथ

आपकी ख़िदमत में क्या

भागते हम न थे?


क्यों हम जुदा

ये क़रीब है?


यूँ बार-बार उसे देखना

सहन हमें होता नहीं 

आपकी आँखों में क्या

झाँकते हम न थे?


क्यों हम जुदा

ये क़रीब है?


हाँ हम मुफ्त के थे

और ये क़ीमती

ख़ता हुई क़ीमत अपनी

माँगते हम न थे


क्या इसीलिए 

हम जुदा

ये क़रीब है


उतारती न नज़र से हमें 

तो जानते हम किस तरह

कि ये चाहतें, ये वलवले 

सब के सब मुहीब हैं

ज़िन्दगी के सलीब हैं


राहुल उपाध्याय । 11 मई 2021 । सिएटल 

वलवले = मन की उमंगें 

मुहीब = क्रूर, अत्याचारी, ज़ालिम बेरहम, भीषण, भयानक, कराल, विकट, डरावना, जिसे देखकर डर लगे

सलीब = सूली, पीड़ा, यातना, ज़ुल्म





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2 comments:

Anita said...

वाह ! बहुत खूब

SANDEEP KUMAR SHARMA said...

बहुत खूब