कहीं दूर जब दु:ख बढ़ जाए
आस की राह जब घटती जाए, मिटती जाए
मेरे ख़्यालों के आँगन में
कोई अपनों की चाह बढ़ाए
कभी तो ये दिल कहे, चलो मिल आएँ
फिर कहे, अभी रूकें, दु:ख न बढ़ाएँ
तरह-तरह से दिल बहलाए
आस-निराश के दीप जलाएँ, दीप बुझाएँ
कौन जाने कैसे मिटे मेरे वो चेहरे
खो गए कैसे मेरे, सपने सुनहरे
हैं मेरे अपने, आज जहाँ भी
क्या कहूँ उन्हें कुछ समझ न आए
कभी लगे दु:ख कभी कम नहीं होंगे
जितने हैं आज उनसे दुगने ही होंगे
तभी कहीं से प्यार से चल के
आए कोई और मुझे समझाए
राहुल उपाध्याय । 7 मई 2021 । सिएटल
 
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