ख़तरों से घिर के भी हम
ज़िन्दगी की दवा पा गए
हमने सोचा नहीं था कभी
पा गए, पा गए, पा गए
हम थे ऐसे भँवर में फँसे
जिसकी कोई भी मंजिल न थी
हम थे दिन के अंधेरों में गुम
रात तो राख से काली थी
कोई राह जब मिली न हमें
जाने क्या-क्या ख़याल आ गए
सोचो हम कितने मज़बूर थे
करने वाले भला कर गए
पीछे मुड़ के जो देखा ज़रा
रंग वे नायाब से भर गए
क़ुर्बां खुद वे हुए तो हुए
दान जीवन का बरसा गए
राहुल उपाध्याय । 20 मई 2021 । सिएटल
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