जो कहते थे कभी कि एक नूर हूँ मैं
उनके दिल से आज कोसों दूर हूँ मैं
आए थे पास कि रोशनी मिलेगी
डर गए कि आग से भरपूर हूँ मैं
आग-ओ-रोशनी है हर चिराग़ में
महताब न बन सका, मजबूर हूँ मैं
(महताब = चाँद)
झुकाऊँ सर तो आए ग़ुलामी की बू
उठाऊँ सर तो लगे मगरूर हूँ मैं
सौहार्द और स्वाभिमान में तालमेल कैसा
ठहरा दिया गया कठोर और क्रूर हूँ मैं
राहुल उपाध्याय । 18 अगस्त 2016 । सिएटल
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