तेरे अंदर बैठा एक चोर हैं
यह सब उसी चोर का खेल है
कहीं सच उजागर न हो जाए
उसी डर से पकी यह बेल है
दिन उगता है
दुख होता है
मैं कहीं हूँ
तू कहीं ओर है
तेरे अंदर बैठा एक चोर हैं
यह सब उसी चोर का खेल है
कहीं सच उजागर न हो जाए
उसी डर से सजी यह बेल है
मुझे ऑनलाइन देख तुम खुश होती हो
स्टेटस पे मुझे तुम जोहती हो
जो जोड़े हमें 'नेट' वो डोर है
तेरे अंदर बैठा एक चोर हैं
यह सब उसी चोर का खेल है
कहीं सच उजागर न हो जाए
उसी डर से खिली यह बेल है
आँखों ने देखा जितना तुमको
साँसों में घोला जितना तुमको
उससे दस गुना बुना मैंने
जो कहा नहीं, सुना मैंने
मेरे मन में नाचा मोर है
तेरे अंदर बैठा एक चोर हैं
यह सब उसी चोर का खेल है
कहीं सच उजागर न हो जाए
उसी डर से फली यह बेल है
राहुल उपाध्याय । 3 अक्टूबर 2021 । इन्दौर
1 comments:
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज सोमवार 04 अक्टूबर 2021 शाम 3.00 बजे साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
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