कविता मोहब्बत है
मोहब्बत कविता
यह मैं तबसे जानता हूँ
जबसे मैंने पहला गीत सुना था
शिमला में झूमा था
दार्जिलिंग में घूमा था
बस की सीट पर
ट्रेन की बर्थ पर
घर की छत पर
कई हमराही मिले
मिलते रहें
सबमें कविता थी
सब कवितामय थीं
आज
कविता बंदी है
क़ैद में है
फड़फड़ा रही है
छटपटा रही है
जितनी कशिश उसकी मुस्कान में थी
खिलखिलाती हँसी में थी
उससे कई ज़्यादा उसके रूदन में है
जो एक दिन में चालीस फ़ोन करती थी
पिछले तेरह दिनों में उसका एक भी फ़ोन नहीं
जितनी इतिहास भरी उसकी बातें थी
उससे कई ज़्यादा सम्भावना भरी उसकी ये चुप्पी है
इससे ज़्यादा
इससे पवित्र
इससे गहरा
इससे ऊँचा
इससे मज़बूत
इससे पुख़्ता
प्यार
कोई हो सकता है?
कविता मोहब्बत है
मोहब्बत कविता
राहुल उपाध्याय । 20 अक्टूबर 2021 । सिएटल
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सुन्दर
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