Wednesday, July 2, 2008

मन से

मन से तुम्हे चाहा था मगर
मन से तुम्हे मांगा नहीं था
ताकत पर अपनी भरोसा नहीं था

खुली किताब अगर होती ज़िंदगी
शब्द सारे मिटा देता उसमें

रखता बस एक तुम्हारा नाम
होती तुम और होता बस मैं

तुम्हारे बस में
मन से तुम्हे चाहा था मगर …

सिएटल,
2 जुलाई 2008

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2 comments:

Udan Tashtari said...

बहुत उम्दा. मनोभावों का सुन्दर चित्रण.

Anonymous said...

chhoti si, pyaari si, kavita hai yeh, Rahul. Very nice!