मन से तुम्हे चाहा था मगर
मन से तुम्हे मांगा नहीं था
ताकत पर अपनी भरोसा नहीं था
खुली किताब अगर होती ज़िंदगी
शब्द सारे मिटा देता उसमें
रखता बस एक तुम्हारा नाम
होती तुम और होता बस मैं
तुम्हारे बस में
मन से तुम्हे चाहा था मगर …
सिएटल,
2 जुलाई 2008
Wednesday, July 2, 2008
मन से
Posted by Rahul Upadhyaya at 3:05 PM
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2 comments:
बहुत उम्दा. मनोभावों का सुन्दर चित्रण.
chhoti si, pyaari si, kavita hai yeh, Rahul. Very nice!
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