आशिक और दिवंगत?
ये कैसे हो सकता है
ये कतई नहीं है तर्कसंगत
कहीं से ये आवाज़ आई
सुन कर हमें क़रार आया
कि आखिर किसी को तो
आशिक़ पर तरस आया
श्रद्धा से हुए हम नतमस्तक
कि चलो कोई तो निकला शुभचिंतक
लेकिन वहाँ मामला कुछ और था
मात्र अर्थहीन शब्दों का शोर था
जम कर छिड़ गया एक रण था
क्यूंकि संकट से घिर गया व्याकरण था
आशिक और दिवंगत?
ये कैसे हो सकता है
ये कतई नहीं है तर्कसंगत
आशिक़ बर्बाद हो सकता है
नष्ट नहीं
आशिक़ को ग़म हो सकता है
कष्ट नहीं
आशिक की कब्र खुदेगी
सजेगी उसकी चिता नहीं
आशिक़ को वालिद विदा करेगे
उसके पिता नहीं
ये ज़माना है बहुत स्वार्थी
इसे नहीं किसी से हमदर्दी
आशिक़ है तो ज़नाज़ा ही निकलेगा
मज़ाल है कि उठ जाए उसकी अर्थी
लेकिन थोड़ी देर रुके
जनाज़ा में कहाँ ज लगेगा और कहाँ ज़
अभी इस पर विचार कर रहे हैं
हमारे माननीय जज
सिएटल,
12 जुलाई 2008
Saturday, July 12, 2008
आशिक़ का जनाज़ा
Posted by Rahul Upadhyaya at 2:21 PM
आपका क्या कहना है??
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Labels: world of poetry
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2 comments:
सही है-विचार हो चुके तब निष्कर्ष बताईयेगा.
अरे भाई विचार हुआ कि नहीं, अब तक निष्कर्ष के लिए हम भी बैठे हैं, संडे की सुबह, बिना स्नान किए :)
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