Thursday, July 17, 2008

जो करना चाहता हूँ वो कर नहीं सकता

जो करना चाहता हूँ वो कर नहीं सकता
ऐसी ज़िंदगी मैं अब और सह नहीं सकता

जब तक बिखरेगा नहीं ये निखरेगा नहीं
सिमट के दायरे में जीवन फल नहीं सकता

अपनी सांसो से इसे सींचा है मैंने
मेरे जीते जी जीवन मर नहीं सकता

'गर सब है माया और सब है क्षणभंगुर
तो दामन का दाग़ क्यों मिट नहीं सकता

प्यार से परहेज़ और पेट में पाप
कुछ दिन से ज्यादा रह नहीं सकता

जब से लत पड़ गई लता बन गया
अब उस के बिना मैं चल नहीं सकता

रिश्तों के बंधन में तन रह सकता है पाक
लेकिन मन किसी बंधन में बंध नहीं सकता

न तुम न 'राहुल' न कोई माई का लाल
जब तक झूठ न बोले वो बच नहीं सकता

सिएटल,
17 जुलाई 2008
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दायरे = दायरा, circle
'गर = अगर, if
क्षणभंगुर = short-lived
दामन का दाग़ = कलंक, stigma
लत = addiction
लता = vine, a climbing plant

पाक = chaste

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2 comments:

परमजीत सिहँ बाली said...

अपने मनोभावों को बखूबी अभिव्यक्त किया है।साथ ही एक कविता के साथ अन्य कविताएं भी पढवा दी आपनें। सभी रचनाएं बेहतरीन हैं।बधाई।

Anonymous said...

Ek dum dil se likha hai, Rahul! Very nice!

Zindagi mein yeh samajhna hai ki kya bikhar kar sambhal sakta hai, kya nahin.