जो करना चाहता हूँ वो कर नहीं सकता
ऐसी ज़िंदगी मैं अब और सह नहीं सकता
जब तक बिखरेगा नहीं ये निखरेगा नहीं
सिमट के दायरे में जीवन फल नहीं सकता
अपनी सांसो से इसे सींचा है मैंने
मेरे जीते जी जीवन मर नहीं सकता
'गर सब है माया और सब है क्षणभंगुर
तो दामन का दाग़ क्यों मिट नहीं सकता
प्यार से परहेज़ और पेट में पाप
कुछ दिन से ज्यादा रह नहीं सकता
जब से लत पड़ गई लता बन गया
अब उस के बिना मैं चल नहीं सकता
रिश्तों के बंधन में तन रह सकता है पाक
लेकिन मन किसी बंधन में बंध नहीं सकता
न तुम न 'राहुल' न कोई माई का लाल
जब तक झूठ न बोले वो बच नहीं सकता
सिएटल,
17 जुलाई 2008
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दायरे = दायरा, circle
'गर = अगर, if
क्षणभंगुर = short-lived
दामन का दाग़ = कलंक, stigma
लत = addiction
लता = vine, a climbing plant
पाक = chaste
Thursday, July 17, 2008
जो करना चाहता हूँ वो कर नहीं सकता
Posted by Rahul Upadhyaya at 9:19 PM
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2 comments:
अपने मनोभावों को बखूबी अभिव्यक्त किया है।साथ ही एक कविता के साथ अन्य कविताएं भी पढवा दी आपनें। सभी रचनाएं बेहतरीन हैं।बधाई।
Ek dum dil se likha hai, Rahul! Very nice!
Zindagi mein yeh samajhna hai ki kya bikhar kar sambhal sakta hai, kya nahin.
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