Monday, July 21, 2008

कंडोम कांड

[http://hindibharat.blogspot.com/2008/07/blog-post_21.html]
समझ में नहीं आता कि कुछ लोग क्यों या तो बच्चों जैसी बेवकूफ़ी की बाते करते हैं या फिर बूढ़ों की तरह दकियानूसी?

अब परेशान है कंडोम के प्रचार को ले कर। हद हो गई। एक उम्र के बाद हर कोई इस के बारे में जान ही जाता है और समझ जाता है - किसी न किसी खुफ़िया तरीके से। आप धार्मिक है तो कह लीजिए किसी देवी शक्ति से। आज से 36 साल पहले की बात सुनिए, जब टी-वी घर घर में नहीं था और स्कूल-घर-परिवार वाले बच्चों को थिएटर में पहली पिक्चर दिखाने ले जाते थे तो कोई धार्मिक - जैसे कि सम्पूर्ण रामायण। और यह बात दिल्ली बम्बई की नहीं है। यह बात है मेरठ की। और मेरठ के एक प्राथमिक विद्यालय की। वहाँ एक दिन सर्दी के महीने में सुबह सुबह खेल के मैदान में हम पांचवी कक्षा के छात्र-छात्राओं को दिख गया कंडोम।

फिर क्या था। ज्ञान की जो सरिता बही कि बस पूछिए मत। रोज उसके बारे में बातें। फिर हमें निरोध के विज्ञापन के बारे में भी जिज्ञासा हुई। और हमारा शिक्षक कौन? स्कूल का दरबान। स्कूल में सिर्फ़ मैडम ही मैडम पढ़ाती थी। उनसे तो पूछने की हिम्मत हुई नहीं। यहीं एक पुरूष थे जिनसे बिना किसी भूमिका के पूछा जा सकता था। क्योंकि ये उस घटना से पूरी तरह वाकिफ़ थे।

तो तात्पर्य यह कि ये बाते रोकने से तो रुकती है नहीं।

ये एक फ़ैशन सा हो गया है आजकल। हर बुराई के लिए किसी न किसी को दोषी ठहराना। कभी मुसलमान तो कभी अंग्रेज़ तो कभी भूमंडलीकरण। आप रामायण खोल कर देख लें। महाभारत देख लीजिए। त्रेतायुग और द्वापरयुग में हर तरह का पाप और व्याभिचार मौजूद था। तब कहाँ थे आप के मुसलमान या अंग्रेज़ या भूमंडलीकरण।

मेरे हिसाब से आज का युग कहीं ज्यादा सभ्य है। आप अम्बानी परिवार की फ़ूट को देख कर कहते हैं - हाय घोर कलयुग आ गया। रामायण की सारी जड़ ही सौतेलेपन के व्यवहार पर है। उस से ज्यादा कलयुग और क्या होगा? आज हम गाँधी के गुज़र जाने के बाद उनका अनादर करते हैं, उन्हें कई बातों के लिए दोषी ठहराते हैं। राम को उनके जीते जी, खुद उनके घर वालो ने बाहर निकाल दिया। राम ने सीता को निकाल दिया। बच्चों की परवरिश तक नहीं की।

अव्वल बात तो यह कि आज अपहरण बहुत कम होते हैं, इसलिए ऐसा कल्पना करना मुश्किल है, लेकिन फ़र्ज करें कि आप की पत्त्नी का अपहरण हो गया है। आप तुरंत पुलिस में रिपोर्ट लिखवाएंगे। इधर-उधर भाग-दौड़ करेंगे। और फ़टाफ़ट काम होगा। लेकिन त्रेतायुग में? पुलिस तो है ही नहीं। इधर-उधर भटकिए। फिर मिले हनुमान, सुग्रीव। चलिए पत्त्नी को बाद में खोजेंगे, पहले आप का मामला सुलझाया जाए। बालि को मार दिया, मामला सुलझ गया। लेकिन अभी नहीं। अभी चतुर्मास है। हम अभी आराम करेंगे। फिर सोचेंगे। बाद में सुग्रीव भूल गए। फिर हनुमान गए। आए। बातें हुई। युद्ध हुआ। लक्ष्मण मूर्छित। राम रो रहे हैं। कहते हैं कि ये मैंने क्या किया? एक औरत के पीछे भाई को खो दिया!

देखिए कितना प्रेम है पति-पत्नी में! बाद में अग्नि-परीक्षा का किस्सा तो सर्वविदित है ही।

अब इस विज्ञापन को ही ले लीजिए। फ़िल्म 'सत्ते पे सत्ता' में कुछ कुछ ऐसा ही होता है जब अमिताभ की शादी होती है हेमा से रजिस्ट्रार के दफ़्तर में। अमिताभ को भी एक निरोध का पैकेट थमा दिया जाता है। यह फ़िल्म बच्चे-बच्चे ने देखी थी उस वक्त। एक उम्दा हास्य-प्रधान फ़िल्म के तौर पर। बॉबी, जूली के बारे में तो सुना कि बड़े-बुज़ुर्गों ने अपने घर की बेटियों को इन्हें देखने न दिया। सत्ते पे सत्ता के बारे में आज तक कोई आपत्ति सुनने में नहीं आई।

और आप ये क्यों सोच लेते हैं कि सिर्फ़ आप ही समाज के शुभचिंतक है? आपकी नज़र में तो जिन्होंने ये विज्ञापन बनाया है, अभिनय किया है और इसे दर्शाने का निर्णय लिया है, सब के सब गैर-ज़िम्मेदार हैं। मैं तो मानता हूँ कि अगर गौर से विश्लेषण किया जाए तो उन सब ने भी स्कूल में वे ही सब किताबें पढ़ी है जो आपने पढ़ी है। वहीं पाठ्यक्रम। थोड़ा तो आप उनका मान रखिए। वे भी आप ही की तरह इस समाज में रहते हैं। उनके भी परिवार हैं। ये किसी एक व्यक्ति-विशेष या तानाशाह का फ़रमान नहीं था कि ऐसा विज्ञापन बनाया जाए और दिखाया जाए।

आप पश्चिम से आई हुई कई बातें अपना लेते हैं। उनको अपनाने में अपना विकास समझते हैं। क्या ज़रुरत है उन्हें भी अपनाने की? रामराज्य में ये सब सुविधाएँ नहीं थी तो क्या जीवन दु:खद था? न फ़्रिज था, न टी-वी। न टेलिफ़ोन, न रेडियो।

मैं माँ के पेट में नौ महीने रहा। एक बार भी अल्ट्रा-साउंड नहीं हुआ। जबकि आज हर देश में बच्चे की देख-रेख के लिए आवश्यक समझा जाता है। भारत में भ्रूण हत्या के डर से ये खटाई में है। वरना हर कोई करवा रहा होता।

मेरा जन्म घर पर ही हुआ, एक छोटे से गाँव में, जहाँ न बिजली थी, न नल। और अच्छी खासी सेहत है। आज हर शहर में डिलिवरी किसी अस्पताल या क्लिनिक में होती है। क्यों?

जिसमें आपको अपना फ़ायदा दिखे वो ठीक। बाकी सब बेकार?

आप वास्तविकता से बच नहीं सकते। कब तक आँख मूंदें रहेंगे? देखिए, सीधी सी बात है। आप खाएंगे-पीएंगे तो मल तो साफ़ करना ही होगा। ज़िंदगी एक रेस्टोरेंट नहीं है कि खाए-पीए-खिसके।

सिएटल,
21 जुलाई 2008

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5 comments:

Neeraj Rohilla said...

बहुत खूब,
जिस लेख का आपने जिक्र किया है वो मुझे भी सुबह सुबह खटका था लेकिन मैने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी थी ।

भूमंडलीकरण अपने होल-सोल पैकेज के साथ आयेगा, स्वीकारना हो तो स्वीकारें वरना दूर से प्रणाम करें ।

डिस्कवरी चैनल के साथ एम.टी.वी. पे मार्डी-ग्रा पार्टी भी दिखेगी । मोबाईल से अपने रिश्तेदार से बात करोगे तो बेटी भी मोबाईल से अपने ब्वायफ़्रेंड से बात करेगी ।

देश कहीं नहीं जा रहा है, वर्तमान को गाली देने वाले पचास साल पहले भी थे और पचास साल बाद भी रहेंगे । कंडोम तो अब चलेगा ही, चाहे बिंदास कंडोम बोलो या अनुभव फ़िल्म की तरह लजाकर मांगो ।

Anonymous said...

नमस्ते़।

रामायण और महाभारत के बारे में आपके विचारों को देखकर लगता है कि आपको समय निकालकर रामायण और महाभारत को समझना चाहिए और उनसे नैतिक, मौलिक, आध्यात्मिक ज्ञान को सीखना चाहिए।

टिप्पणी का उद्देश्य आपकी निन्दा नहीं है। आशा है कि आपको बुरा नहीं लगेगा।

आपका शुभचिन्तक।

Anonymous said...

ऊपर की बेनामी टिप्पणी करने वाले ने रामायण से कुछ ज़्यादा ही नैतिक ज्ञान ले लिया है................ तभी छिप कर तीर चला रहा है ............ बाली के मरण के बाद हमें भी वानर-रीछ सेना में भरती कर लेना!

समीर...सैम said...

मैं आपकी बात से सहमत हूँ यह सब हमारी गलती है हम पश्चिम की सभ्यता के पीछे ऐसे भाग रहे है की अपनी सभ्यता भूल गए है..........अब कोई भी नमस्कार, जय श्री राम, अस्सलामुअलैकुम, आदाब नही कहता है अब हाय -- हेलो बोला जाता है....
हम लोग अपनी बेटी को छोटी सी स्कर्ट जो घुटनों से ऊपर ही ख़त्म हो जाती है और टॉप दिलाते है जिसकी न आस्तीन होती है और नही पीठ होती है.....बड़े फख्र से उसे अपनी बेटी कहते है जब कोई लड़का उसे सेक्सी कहता है तो वो बड़ी खुश होती है जबकि पहले इसे गाली समझा जाता था.....

Anonymous said...

लेख से झलकता है कि आप अपने सांस्कृतिक और सामाजिक कर्तव्यों के बारे में कितने अल्पबुद्धिमान एवं अपरायण हैं।

और आपके कुछ मुँह पर बड़ाई पर करने वाले लोग इस रचना के लिए आपकी प्रशंसा कर रहे हैं।