तुम जो ढेर सारी चटनी बना कर बोतल में बंद कर गई थी
उसमें फ़फ़ूंद पड़ गई है
सोफ़े के पीछे कमरे के कोने में जाले हो गए हैं
एक केले का पौधा कल लड़खड़ा कर गिर पड़ा
उठाता हूँ तो उठता ही नहीं
दीवार से टिकाया पर वो टिकता ही नहीं
बार बार फ़िसलता रहता है
अब मैंने भी छोड़ दिया है
कहाँ तक कोई किसी की मनुहार करे
अभी तुम्हे गए हुए सिर्फ़ 18 ही दिन हुए हैं
और देखो कितना कुछ बदल गया है
मैं क्या था
और क्या हो गया
न कोई पूछता है
न किसी को कुछ कहने की ज़रुरत है
दिन में घर पर देख कर
समझ जाते है लोग
एक छींक आती थी मुझे
और जान न पहचान
सब आशीर्वाद देने दौड़ते थे
आज आंसू बहते हैं
तो सब असमंजस में पड़ जाते हैं
सोचते ही रह जाते हैं
किसी को आंसू पोछते हुए कभी देखा होता
तो शायद वो भी पोछते
अभी तुम्हारे आने में 36 दिन बाकी हैं
घबराओ नहीं
जो होगा
अच्छा ही होगा
याद है मैं कहता था कि
मेरे हाथों की लकीरों में अगर मुकद्दर होता
तो मैं अपने ही हाथों के हुनर से बेख़बर होता
सिएटल,
16 जुलाई 2008
3 comments:
याद है मैं कहता था कि
मेरे हाथों की लकीरों में अगर मुकद्दर होता
तो मैं अपने ही हाथों के हुनर से बेख़बर होता
--बहुत खूब!! अभी तो ३८ और ढेर सारी ऐसी रचनाऐँ पढने मिलेँगी. :)
अभी ये रचना(विपदा) 18 दिन की है बाकी के 18 दिन की तो अभी कई बाकी हैं।
बहुत खूब जनाब, बहुत खूब
badhiya likhe hain..
kisi ko yaad karte huye likhne para kuchh alaga hi baahar aata hai jo har kisi ko chhoo jata hai..
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