Wednesday, July 16, 2008

आओगी जब तुम

तुम जो ढेर सारी चटनी बना कर बोतल में बंद कर गई थी
उसमें फ़फ़ूंद पड़ गई है
सोफ़े के पीछे कमरे के कोने में जाले हो गए हैं
एक केले का पौधा कल लड़खड़ा कर गिर पड़ा
उठाता हूँ तो उठता ही नहीं

दीवार से टिकाया पर वो टिकता ही नहीं
बार बार फ़िसलता रहता है
अब मैंने भी छोड़ दिया है
कहाँ तक कोई किसी की मनुहार करे

अभी तुम्हे गए हुए सिर्फ़ 18 ही दिन हुए हैं
और देखो कितना कुछ बदल गया है
मैं क्या था
और क्या हो गया
न कोई पूछता है
न किसी को कुछ कहने की ज़रुरत है
दिन में घर पर देख कर
समझ जाते है लोग

एक छींक आती थी मुझे
और जान न पहचान
सब आशीर्वाद देने दौड़ते थे

आज आंसू बहते हैं
तो सब असमंजस में पड़ जाते हैं
सोचते ही रह जाते हैं
किसी को आंसू पोछते हुए कभी देखा होता
तो शायद वो भी पोछते

अभी तुम्हारे आने में 36 दिन बाकी हैं
घबराओ नहीं
जो होगा
अच्छा ही होगा

याद है मैं कहता था कि
मेरे हाथों की लकीरों में अगर मुकद्दर होता
तो मैं अपने ही हाथों के हुनर से बेख़बर होता

सिएटल,
16 जुलाई 2008

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3 comments:

Udan Tashtari said...

याद है मैं कहता था कि
मेरे हाथों की लकीरों में अगर मुकद्दर होता
तो मैं अपने ही हाथों के हुनर से बेख़बर होता


--बहुत खूब!! अभी तो ३८ और ढेर सारी ऐसी रचनाऐँ पढने मिलेँगी. :)

Nitish Raj said...

अभी ये रचना(विपदा) 18 दिन की है बाकी के 18 दिन की तो अभी कई बाकी हैं।
बहुत खूब जनाब, बहुत खूब

PD said...

badhiya likhe hain..
kisi ko yaad karte huye likhne para kuchh alaga hi baahar aata hai jo har kisi ko chhoo jata hai..