जिन उंगलियों को मैंने कभी छुआ नहीं
उन से टाईप किए हुए शब्द
मेरे दिल को छू जाते हैं
उन्हे पढ़ कर
मेरा रोम-रोम खिल उठता है
जिन होंठों को मैंने कभी चूमा नहीं
उनसे निकली आवाज़
मुझे प्यारी लगती है
फोन होता है कान पर
लेकिन
सीधे दिल में उतर जाती है
वो कहती है
कि हम मिलेंगे
जबकि
वो जानती है
कि हम नहीं मिलेंगे
ये रिश्ते
जो हवा में बनते हैं
हवा जैसे ही होते हैं
दिखते नहीं
लेकिन
यहीं कहीं
आसपास
सदा बरकरार रहते हैं
सिएटल,
30 जुलाई 2008
Wednesday, July 30, 2008
हवाई किले
Posted by Rahul Upadhyaya at 12:07 AM
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Labels: digital age, relationship, valentine
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6 comments:
सुंदर!
अति सुंदर
सुंदर ख़यालात और अच्छी कविता.
बहुत खूब.
बेहतरीन और उम्दा.
अपने मनोभावो को बखूबी पेश किया है।बहुत सुन्दर!
रिश्ते
जो हवा में बनते हैं
हवा जैसे ही होते हैं
दिखते नहीं
लेकिन
यहीं कहीं
आसपास
सदा बरकरार रहते हैं
bahut sundar |
Bahut achha likha hai Rahul Ji. First para is more than original.
Please keep it up.
Rahul, bahut sundar kavita hai. Is kavita ko "Digital Age" ki category mein bhi daalna chahiye. Pehle log haathon se likhe khat aur khat ki khushboo ki baat karte the. Aajkal hum type kiye hooye letters ki baat karte hain.
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