Wednesday, July 30, 2008

हवाई किले

जिन उंगलियों को मैंने कभी छुआ नहीं
उन से टाईप किए हुए शब्द
मेरे दिल को छू जाते हैं
उन्हे पढ़ कर
मेरा रोम-रोम खिल उठता है

जिन होंठों को मैंने कभी चूमा नहीं
उनसे निकली आवाज़
मुझे प्यारी लगती है
फोन होता है कान पर
लेकिन
सीधे दिल में उतर जाती है

वो कहती है
कि हम मिलेंगे
जबकि
वो जानती है
कि हम नहीं मिलेंगे

ये रिश्ते
जो हवा में बनते हैं
हवा जैसे ही होते हैं
दिखते नहीं
लेकिन
यहीं कहीं
आसपास
सदा बरकरार रहते हैं

सिएटल,
30 जुलाई 2008

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6 comments:

vipinkizindagi said...

सुंदर!
अति सुंदर

बालकिशन said...

सुंदर ख़यालात और अच्छी कविता.
बहुत खूब.
बेहतरीन और उम्दा.

परमजीत सिहँ बाली said...

अपने मनोभावो को बखूबी पेश किया है।बहुत सुन्दर!

Vinaykant Joshi said...

रिश्ते
जो हवा में बनते हैं
हवा जैसे ही होते हैं
दिखते नहीं
लेकिन
यहीं कहीं
आसपास
सदा बरकरार रहते हैं
bahut sundar |

Dinesh Arya said...

Bahut achha likha hai Rahul Ji. First para is more than original.
Please keep it up.

Anonymous said...

Rahul, bahut sundar kavita hai. Is kavita ko "Digital Age" ki category mein bhi daalna chahiye. Pehle log haathon se likhe khat aur khat ki khushboo ki baat karte the. Aajkal hum type kiye hooye letters ki baat karte hain.