Monday, November 26, 2012

जन्म

जन्म के पीछे कामुक कृत्य है
यह एक सर्वविदित सत्य है

कभी झुठलाया गया
तो कभी नकारा गया
हज़ार बार हमसे ये सच छुपाया गया

कभी शिष्टता के नाते
तो कभी उम्र के लिहाज से
'अभी तो खेलने खाने की उम्र है
क्या करेंगे इसे जान के?'

सोच के मंद मुस्करा देते थे वो
रंगीन गुब्बारे से बहला देते थे वो

बढ़े हुए तो सत्य से पर्दे उठ गए
और बच्चों की तरह हम रुठ गए
जैसे एक सुहाना सपना टूट गया
और दुनिया से विश्वास उठ गया

ये मिट्टी है, मेरा घर नहीं
ये पत्थर है, कोई ईश्वर नहीं
ये देश है, मातृ-भूमि नहीं
ये ब्रह्मांड है, ब्रह्मा कहीं पर नहीं

एक बात समझ में आ गई
तो समझ बैठे खुद को ख़ुदा
घुस गए 'लैब' में
शांत करने अपनी क्षुदा

हर वस्तु की नाप तोल करे
न कर सके तो मखौल करे

वेदों को झुठलाते है हम
ईश्वर को नकारते है हम
तर्क से हर आस्था को मारते हैं हम

ईश्वर सामने आता नहीं
हमें कुछ समझाता नहीं

कभी शिष्टता के नाते
तो कभी उम्र के लिहाज से
'अभी तो खेलने खाने की उम्र है
क्या करेंगे इसे जान के?'

बादल गरज-बरस के छट जाते हैं
इंद्रधनुष के रंग बिखर जाते है

सिएटल,
26 नवम्बर
(मेरा जन्म दिन)

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4 comments:

Unknown said...

अपनी इस रचना के माध्यम से एक सही प्रश्न उठाया है आपने | विज्ञान के नाम पे हम अपने वेदों और अपनी आस्था को झुठला नहीं सकते | बहुत से ऐसे तथ्य हैं जो हमारे वेद-पुरानों में बहुत पहले से है पर विज्ञान आज वहाँ तक पहुँच रहा है या पहुंचा भी नहीं है |

आपकी इस उत्कृष्ट पोस्ट की चर्चा बुधवार (28-11-12) के चर्चा मंच पर भी है | जरूर पधारें |
सूचनार्थ |

Anonymous said...

"ये मिट्टी है, मेरा घर नहीं
ये पत्थर है, कोई ईश्वर नहीं
ये देश है, मातृ-भूमि नहीं
ये ब्रह्मांड है, ब्रह्मा कहीं पर नहीं"

यह lines जब भी पढ़ी हैं, गहरी लगी हैं.

Last की दो lines बहुत सुन्दर हैं:

"बादल गरज-बरस के छट जाते हैं
इंद्रधनुष के रंग बिखर जाते है"


Happy Birthday, Rahul!

Asha Joglekar said...

विज्ञान अपनी जगह सही है पर सारे प्रश्नों के उत्तर वहां भी नही है ।

अशोक सलूजा said...

कभी शिष्टता के नाते
तो कभी उम्र के लिहाज से
'अभी तो खेलने खाने की उम्र है
क्या करेंगे इसे जान के?'

ये ही अटल सत्य है ....
जन्म-दिन की मुबारक और
शुभकामनायें!