सारा-सारा दिन यूँही गुज़रता है 
कभी कोई आता है
कभी कोई जाता है 
अमेज़ॉन वाला भी 
पैकेज नहीं ड्रॉप करता है 
थोड़ी देर रूकता है
कुछ न कुछ पूछता है 
घड़ी-घड़ी कोई न कोई आ ही जाता है 
घड़ी-घड़ी सीसीटीवी पे निगाह जाती है 
कभी कोई बालक ऊपर से कुछ पूछता है 
कभी नेटवर्क का भी लोचा होता है
कभी बिजली भी भाग जाती है 
इन्वर्टर पर लोड पड़ता है 
गर्मी जान लेने पे उतर आती है 
कभी कोई रोमियो चैट पे चाट जाता है 
खाना खाया? क्या खाया?
चलो कहीं चलते हैं 
दो प्रेमियों की तरह मिलते हैं 
एक और नम्बर ब्लॉक करना पड़ता है
चलते-फिरते ही खाना बनता है 
ख़ुद ही खाना है और किसको खिलाना है 
सारा-सारा दिन यूँही गुज़रता है 
कभी कोई आता है
कभी कोई जाता है 
कहूँ भी मन की तो कहूँ किससे?
क़िस्से दिन भर के सुलझाऊँ किससे?
डायरी भी लिख के मैंने देखा है
ख़ुद ही लिखो और ख़ुद ही पढ़ो 
इससे कहाँ कुछ होता है?
कोई पढ़ ले तो मुसीबत 
न पढ़े तो क्या फ़ायदा है 
सारा-सारा दिन यूँही गुज़रता है 
कभी कोई आता है
कभी कोई जाता है 
आईना भी मूक रहता है 
यूट्यूब ज़रूरत से ज़्यादा बोलता है 
व्हाट्सएप पे वही घिसीपिटी बातें हैं 
कुछ गाने हैं अज़ीज़ 
जो किसी को सुनाने हैं
पाँव में घूँघरू बाँध सुनाने हैं
रात होते ही दिल मचल जाता है 
जैसा है नहीं वैसा हो जाता है
कसक सी उठती है 
आँचल भी मेरा गिरता है 
जो नहीं था वही हो जाता है 
राहुल उपाध्याय । 25 मई 2022 । सिएटल