मैं मौसीक़ी को मीत बनाता चला गया
हर भाव में हर गीत सुनाता चला गया
अपने जहां में नूर की एक बूँद भी न थी
फिर वो हुआ करम कि नहाता चला गया
शताब्दियों का ज़ुल्म भुलाना कठिन था
मैं घाव को मल्हम बताता चला गया
जो जैसा था उसी को अपना समझ लिया
जो था वही सामने आता चला गया
राहुल उपाध्याय । 6 मई 2022 । सिएटल
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