Tuesday, November 29, 2016

तुम्हें भूलाने में ज़माने लगे हैं

तुम्हें भूलाने में 

ज़माने लगे हैं

मन्दिरों से नज़रें 

चुराने लगे हैं


कोई भी मूरत

तेरी ही सूरत

दुआ करने से

कतराने लगे हैं


कोई भी सूरत

तेरी ही मूरत

सलाम करने से

घबराने लगे हैं


सूरत-मूरत

ढाँचा है प्यारे

पीर-पैग़म्बर 

समझाने लगे हैं


हज़ारों सपने

उधड़े-उधाड़े

पैबन्द कितने

सिरहाने लगे हैं


राहुल उपाध्याय | 30 नवम्बर 2016 | रतलाम 





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