तुम्हें भूलाने में
ज़माने लगे हैं
मन्दिरों से नज़रें
चुराने लगे हैं
कोई भी मूरत
तेरी ही सूरत
दुआ करने से
कतराने लगे हैं
कोई भी सूरत
तेरी ही मूरत
सलाम करने से
घबराने लगे हैं
सूरत-मूरत
ढाँचा है प्यारे
पीर-पैग़म्बर
समझाने लगे हैं
हज़ारों सपने
उधड़े-उधाड़े
पैबन्द कितने
सिरहाने लगे हैं
राहुल उपाध्याय | 30 नवम्बर 2016 | रतलाम
0 comments:
Post a Comment