Sunday, November 27, 2016

ये माना मेरी जाँ कालाधन दबा है

तौबा तौबा ये धन, ये धन का ग़ुरूर 

मोदी के सामने सर फिर भी झुकाना ही पड़ा

कैसा कहते थे जाएँगे, जाएँगे मगर 

उन्होंने इस तरह पुकारा बैंक जाना ही पड़ा


ये माना मेरी जाँ कालाधन दबा है

लगाव इससे इतना मगर किसलिए है

जो रूपये थे तुम्हारे, तुम्हें मिल गए हैं

जो नहीं थे तुम्हारे, फुर्र हो गए हैं

जड़ों से क्यूँ तुम्हारे महल हिल गए हैं


जो खाता खोले, बदल ना सके वो

जो खाता था पहले, खा ना सके वो

क़रीब और आओ, क़दम तो बढ़ाओ

बढ़े जो कर संग्रहण तो कर किसलिए है


नज़ारे भी देखे, इशारे भी देखे

क़तारों में लगते हमारे भी देखे

नाम क्या चीज़ है, इज़्ज़त क्या है

सोने चाँदी की हक़ीक़त क्या है

लाख चिपके कोई दौलत से

मोदी के सामने दौलत क्या है

वे मैखाने जा के, क्यूँ सागर उठाएँ

नशीले जनमत का पहर किस लिए है


तुम्हीं ने जीताया, तुम्हीं ने बनाया 

दिल्ली की गद्दी पे तुम्हीं ने बिठाया

जिस शहर से भी ये गुज़र जाए

शहरवासी पे निखार जाए

रूठ जाए ये तो पिट जाए पाकिस्तान 

और जो ये हँस दे तो बहार जाए

इनके क़दम से है देश में सफ़ाई 

अगर पसन्द नहीं तो ये सदर किस लिए है


(कैफी आज़मी से क्षमायाचना सहित)

27 नवम्बर 2016

सैलाना | 001-425-445-0827

tinyurl.com/rahulpoems 










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