Sunday, September 15, 2024

इतवारी पहेली: 2024/09/15


इतवारी पहेली:


उगती नहीं है #%# ## # 

कृष्ण थे बच्चे #%### # 


इन दोनों पंक्तियों के अंतिम शब्द सुनने में एक जैसे ही लगते हैं। लेकिन जोड़-तोड़ कर लिखने में अर्थ बदल जाते हैं। हर # एक अक्षर है। हर % आधा अक्षर। 


जैसे कि:


हे हनुमान, राम, जानकी

रक्षा करो मेरी जान की


ऐसे कई और उदाहरण/पहेलियाँ हैं। जिन्हें आप यहाँ देख सकते हैं। 


Https://tinyurl.com/RahulPaheliya



आज की पहेली का हल आप मुझे भेज सकते हैं। या यहाँ लिख सकते हैं। 

सही उत्तर न आने पर मैं अगले रविवार - 15 सितम्बर 2024 को - उत्तर बता दूँगा। 


राहुल उपाध्याय । 15 सितम्बर 2024 । रतलाम 




ये जीवन क्या है

ये जीवन क्या है

जीवन नहीं है

बमबारी के बीच 

कोई बचता नहीं है 


न कोई ग़लत है 

न कोई सही है 

झगड़े-फ़साद की

जड़ यही है


तुमने भी देखा

हमने भी देखा

सरहदों के झगड़ों का

सर ही नहीं है


बच्चों के लब पे

ग़म का असर है 

मुस्कान-वुस्कान

कुछ भी नहीं है 


ये दुनिया है दुनिया 

सदा से है ऐसी

किसी को किसी की

ज़रूरत नहीं है 


तरीक़े बदल गए

नफ़रत है वैसी

किसी को किसी से 

मुहब्बत नहीं है 


राहुल उपाध्याय । 15 सितम्बर 2024 । उज्जैन से। रतलाम जाते हुए 




Saturday, September 14, 2024

हम भी चोर, ये भी चोर

हम भी चोर, वे भी चोर

ऐसी-कैसी लगी ये होड़ 


हम तो समझे वे हैं संत

लोक-लाज का उनको भय

कीचड़-वीचड़ रोज़ उछले

लोकतंत्र की ये कैसी दौड़ 


गोली खाई, अजेय बन गए

डिबेट हुआ, धूल खा गए

पोल पे पोल दोनों हारे

रोज़-रोज़ कोई नया है मोड़ 


होगा चुनाव, आएगा कोई 

किसी बात पे हारेगा कोई 

हैं चुनाव के ये गोरख धंधे

यही है सार, यही निचोड़ 


जो भी जीते, भारत जीते

देश हित में सारे नतीजे 

एक तरफ़ है कमला नारी

दूजी तरफ़ है ट्रम्प बेजोड़ 


राहुल उपाध्याय । 15 सितम्बर 2024 । उज्जैन 




वह बाल बाँध लेती है

वह बाल बाँध लेती है 

और उम्र बढ़ा लेती है 

दुपट्टे में मुँह बांधकर 

दुनिया की नज़रों से 

ख़ुद को बचा लेती है 

दुनिया उसे चाहे, सराहे

यह उसकी क़िस्मत नहीं 

वह अपना नाम-ओ-निशाँ 

दुनिया से मिटा देती है 


राहुल उपाध्याय । 14 सितम्बर 2024 । रतलाम से उज्जैन जाते हुए 

मैं हवा हूँ

हवाएँ 

रोज़ आती हैं 

रोज़ जाती हैं 

न कुछ लाती हैं 

न ले जाती हैं 

क्षण भर को

अपना अहसास करा कर

चली जाती हैं 


हवा न हो तो जीना मुश्किल 

ठहर जाए तो बेचैन कर देती है


मैं हवा हूँ 


राहुल उपाध्याय । 14 सितम्बर 2024 । रतलाम से उज्जैन जाते हुए 



न जेल, न क़ैद, न पिंजरा है

न जेल, न क़ैद, न पिंजरा है

आदमी खुद ही शिकंजा है


तुम्हें क्या कोई बांधेगा

तुम्हें क्या कोई छोड़ेगा 

तुम ही तुम्हारे दुश्मन हो

तुम्हारा दिल तुमको तोड़ेगा


ये दुनिया, ये नाते फ़ानी हैं

जीवन बहता पानी है

जिसे मुठ्ठी में तुम लाओगे 

फिसल के वही रेत जानी है


नहीं कुछ यहाँ जो तुम्हारा है

जो आता है एक दिन जाता है 

हवाओं सा होके यहाँ घूम लो

उसके आगे निशाँ न गाथा है


राहुल उपाध्याय । 14 सितम्बर 2024 । रतलाम से उज्जैन जाते हुए 


Thursday, September 12, 2024

वह छुप-छुप के शायरी लिखती है

वह छुप-छुप के शायरी लिखती है 

मुझे भेज के डीलिट कर देती है 

छद्म नाम से फ़ेसबुक पे पोस्ट करती है 

डरती है कहीं पति यह जान न ले

कि उसका दिल अब भी धड़कता है

किसी की याद उसमें बसती है 

किसी को पाने को दिल मचलता है

सब कुछ खोने को दिल करता है 


आधी रात को जब आँख खुलती है 

सुख-दुख की लहरों में डूब जाती है 

क्या नहीं है उसके पास जो वो दुखी है 

अंगरक्षक सा एक पति है

चारदीवारी में बंद सुरक्षित है

बेटी भी उसकी, उसकी मूर्ति है

पति ने जो सेज ख़ाली की

उसकी बेटी आज उसपे सोती है


राहुल उपाध्याय । 12 सितम्बर 2024 । खाचरोद (मध्यप्रदेश)






Wednesday, September 11, 2024

तीन साल से ज़्यादा हो गए

तीन साल से ज़्यादा हो गए

वह फोन नहीं करती है मुझे 


मैंने सारे कॉटेक्ट्स के नाम बदल दिए हैं

अब धोखे से ही सही

क्षण भर के लिए खुशी तो होती है 

कि उसका फोन आया 


राहुल उपाध्याय । 12 सितम्बर 2024 । दिल्ली और कोटा के बीच, रतलाम जाते हुए 





मैं डाल-डाल

मैं डाल-डाल

मैं पात-पात

मेडल हैं मेरे

दोनों हाथ


मैं अबला नहीं 

सबला नहीं 

देवी का रूप

सबला नहीं 


नारी हूँ इक

सिम्पल कोई 

आँखों में है

ट्विंकल कोई 


ख़ुद ही सब

कुछ किया नहीं 

ऐसा नहीं कि

साथ मिला नहीं 


सब मिलते गए

मैं बढ़ती गई

सफलता की 

सीढ़ी चढ़ती गई 


मैं शीर्ष पे

वे नेपथ्य में

सच-सच कहूँ 

ये तथ्य मैं


आँखें थीं

मेरी लक्ष्य पे

अंतिम यही 

बस सत्य है 


राहुल उपाध्याय । 12 सितम्बर 2024 । दिल्ली 




Monday, September 9, 2024

हर दिन कोई छलता है

हर दिन कोई छलता है 

जीवन यूँ ही चलता है 


हाथ में हाथ जब आए किसी का

तब जा के डर कहीं निकलता है 


तारा बनो, सूरज नहीं 

जो ढलता, चढ़ता, ढलता है 


सच कड़वा है, न पचता है

सच ही तो हर कोई उगलता है 


आगे-पीछे की ये सोच ही

कम करती हमारी सरलता है


राहुल उपाध्याय । 10 सितम्बर 2024 । दिल्ली 



रात भर कोई चलता रहा

रात भर कोई चलता रहा

दीपक बन जलता रहा


क़िस्मत कहाँ है ख़्वाब की अच्छी 

एक के सहारे पलता रहा


शांत हूँ लेकिन शांति कहाँ 

मन ही मन मैं उबलता रहा


आँखों में किसी की प्यार जो पाया

पाने को उसे मैं मचलता रहा


बोता हूँ सीमेंट, बनाता हूँ घर 

पेड़ कटते रहे, मैं फलता रहा


राहुल उपाध्याय । 10 नवम्बर 2024 । दिल्ली 


Tuesday, September 3, 2024

अब मैं बेदाग़ हूँ

अच्छा हुआ 

वज़न गिर गया

हाथ पतले हो गए 

पट्टा और छोटा हो नहीं सकता

इसलिए 

अब कलाई पर 

घड़ी के निशान नहीं पड़ते हैं 


शादी में मिली

अँगूठी और चैन

कब की उतर गईं थीं

चश्मा भी उतर गया है

बाल भी कम हैं

अब मैं

चिह्नरहित हूँ 

बेदाग़ हूँ 


अब मैं 

जैसा आया था वैसा

घर जा सकता हूँ 

मुँह दिखा सकता हूँ 


राहुल उपाध्याय । 3 सितम्बर 2024 । गोरखपुर 



Monday, September 2, 2024

तुम बहुत अच्छी हो

तुम बहुत अच्छी हो

यह मुझे तब ही पता चल गया था

जब तुमने मुझे गले लगाया था

अपनापन जताया था

डूबते को तिनका थमाया था


तुम्हारी हर फ़ोन कॉल 

मुलाक़ात 

चैट

मुझे भाव-विभोर कर देती हैं 

तुम्हारे दिल के अच्छेपन से


तुम्हारा दिल 

कितना साफ़ है

सच्चा है

अच्छा है

इसका कोई मापदंड नहीं है


तुम दिमाग से कितनी कुशाग्र हो 

यह तो पता चल जाता है

तुम्हारी शिक्षा से

डिग्री से

सर्टिफिकेट से

नौकरी से

घर से

कार से


तुम्हारा दिल कितना अच्छा है

इसका कोई हिसाब नहीं है


जोड़ने की कोशिश ज़रूर करता हूँ 

कि उसने यह क्यूँ किया?

ऐसा करने की कोई ज़रूरत नहीं थी

फिर भी क्यों करती है 

करती ही रहती है 


और हर पल यह अंदेशा भी लगा रहता है 

कि कहीं अगले ही पल तुम्हें खो न बैठूँ

तुम्हारी कोई गारंटी भी नहीं है 

कोई अनुबंध नहीं 

कोई करारनामा नहीं


सहज रहने की कोशिश करता हूँ 

सहज रह नहीं पाता

तुम पर बहुत प्यार आता है 

और डर भी लगता है 


राहुल उपाध्याय । 2 सितम्बर 2024 । गोरखपुर