हर दिन कोई छलता है
जीवन यूँ ही चलता है
हाथ में हाथ जब आए किसी का
तब जा के डर कहीं निकलता है
तारा बनो, सूरज नहीं
जो ढलता, चढ़ता, ढलता है
सच कड़वा है, न पचता है
सच ही तो हर कोई उगलता है
आगे-पीछे की ये सोच ही
कम करती हमारी सरलता है
राहुल उपाध्याय । 10 सितम्बर 2024 । दिल्ली
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