Tuesday, December 25, 2007

चुनाव


चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

डेमोक्रेट्स जीते या रिपब्लिकन्स जीते, हमे क्या
ये मुल्क नहीं मिल्कियत हमारी
हम इन्हे समझे हम इन्हे जाने
ये नहीं अहमियत हमारी

तलाश-ए-दौलत आए थे हम
आजमाने किस्मत आए थे हम
आते है खयाल हर एक दिन
जाएंगे अपने घर एक दिन
डेमोक्रेट्स जीते या रिपब्लिकन्स जीते
बदलेगी नहीं नीयत हमारी
हम इन्हे समझे ...

ना तो है हम डेमोक्रेट
और नहीं है हम रिपब्लिकन
बन भी गये अगर सिटीज़न
बन न पाएंगे अमेरिकन
डेमोक्रेट्स जीते या रिपब्लिकन्स जीते
छुपेगी नहीं असलियत हमारी
हम इन्हे समझे ...

न डेमोक्रेट्स का प्लान
न रिपब्लिकन्स का वाँर
कर सकता है
हमारा उद्धार
डेमोक्रेट्स जीते या रिपब्लिकन्स जीते
पूछेगा नहीं कोइ खैरियत हमारी
हम इन्हे समझे ...

हम जो भी है
अपने श्रम से है
हम जहाँ भी है
अपने दम से है
डेमोक्रेट्स जीते या रिपब्लिकन्स जीते
काम आयेगी बस काबिलियत हमारी
हम इन्हे समझे ...

फूल तो है पर वो खुशबू नहीं
फल तो है पर वो स्वाद नहीं
हर तरह की आज़ादी है
फिर भी हम आबाद नहीं
डेमोक्रेट्स जीते या रिपब्लिकन्स जीते
यहाँ लगेगी नहीं तबियत हमारी
हम इन्हे समझे ...

(अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव के दौरान लिखी)
Due to popular demand, here is the literal translation of this poem in English.

Elections

Should Democrates win or Republicans win, We don't care
This country is not our country
So to understand them or to know them
Is not our priority

We came here in search of wealth
We came here to try our luck
Every day we keep thinking
One day we will go back home
Should Democrates win or Republicans win
My intentions will never change
So to understand them or to know them
Is not our priority

Neither are we Democrates
Nor are we Republicans
Even though we may be citizens
We will never be American
Should Democrates win or Republicans win
This reality can never be denied
So to understand them or to know them
Is not our priority

Neither the plan of Democrates
Nor the war of Republicans
Can ever be of any use to us
Should Democrates win or Republicans win
No one will ever look after our well being
So to understand them or to know them
Is not our priority

Whatever we are
It is all due to our hard work
Wherever we are
It is all due to our strong will
Should Democrates win or Republicans win
Only our skills and abilities will be useful to us
So to understand them or to know them
Is not our priority

Flowers are plenty but they don't have the same fragrance
Fruits are plenty but they don't have the same taste
We have all kinds of freedom
But we are still not happy
Should Democrates win or Republicans win
We will never be happy here
So to understand them or to know them
Is not our priority

Wednesday, December 19, 2007

हम सब 'एक' हैं

स्विच दबाते ही हो जाती है रोशनी सूरज की राह मैं तकता नहीं गुलाब मिल जाते हैं बारह महीने मौसम की राह मैं तकता नहीं इंटरनेट से मिल जाती हैं दुनिया की खबरें टीवी की राह मैं तकता नहीं ईमेल-मैसेंजर से हो जाती हैं बातें फोन की राह मैं तकता नहीं डिलिवर हो जाता हैं बना बनाया खाना बीवी की राह मैं तकता नहीं खुद की ज़रुरते हैं कुछ इतनी ज्यादा कारपूल की चाह मैं रखता नहीं होटले तमाम है हर एक शहर में लोगों के घर मैं रहता नहीं जो चाहता हूं वो मिल जाता मुझे है किसी की राह मैं तकता नहीं किसी की राह मैं तकता नहीं कोई राह मेरी भी तकता नहीं कपड़ो की सलवट की तरह रिश्ते बनते-बिगड़ते हैं रिश्ता यहाँ कोई कायम रहता नहीं तत्काल परिणाम की आदत है सबको माइक्रोवेव में तो रिश्ता पकता नहीं किसी की राह मैं तकता नहीं कोई राह मेरी भी तकता नहीं सिएटल 19 दिसम्बर 2007

Saturday, December 15, 2007

वतन और वेतन


चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

अब तक कहीं भी लगा न मन
दौलत को ही किया सदा नमन
वतन फ़रामोश हम हैं वे तन
जिन्हें न मिला मुंहमांगा वेतन
तो वतन छोड़ के चल दिये
बुझा के वापसी के दिये

कोसते हैं अब ईश्वर को
थोप दिया क्यूं इस वर को?
ये श्राप जैसा क्यूं वर दिया
कि पहनने लगे विदेशी वर्दीयां

देश ने हमें क्या कुछ न दिया
गंगा जमुना जैसी पावन नदियां
संस्कृत भाषा और सुसंस्कृत लोग
वेद, पुराण, गीता और कर्मयोग

फ़िर भी हमें न रास आया
बाहर क्या ऐसा खास पाया?
कि वतन छोड़ के चल दिये
बुझा के वापसी के दिये

कोसते हैं अब ईश्वर को
थोप दिया क्यूं इस वर को?
ये श्राप जैसा क्यूं वर दिया
कि पहनने लगे विदेशी वर्दीयां

गलती से दशरथ के बाण से
श्रवण हाथ धो बैठा प्राण से
बाप से छूट गई बेटे की डोर
राम चले अभ्युदय की ओर

हमारे पिता से क्या भूल हुई
कि देश की मिट्टी धूल हुई
और वतन छोड़ के चल दिये
बुझा के वापसी के दिये

कोसते हैं अब ईश्वर को
थोप दिया क्यूं इस वर को?
ये श्राप जैसा क्यूं वर दिया
कि पहनने लगे विदेशी वर्दीयां

यशोधरा ने जन्मा राहुल को
जंजाल सा लगा बाबुल को
उठ के ऐसे भागे जैसे चोर
बुद्ध चले निर्वाण की ओर

ये किस जंजाल से भागे हम
कि अभी तक नहीं जागे हम
क्यूं वतन छोड़ के चल दिये
बुझा के वापसी के दिये

कोसते हैं अब ईश्वर को
थोप दिया क्यूं इस वर को?
ये श्राप जैसा क्यूं वर दिया
कि पहनने लगे विदेशी वर्दीयां

आज वतन से दूर हैं हम
झूठ है कि मजबूर हैं हम
बिकने वाले मज़दूर हैं हम
मतलबी और मगरूर हैं हम

छाया कुछ ऐसा ऐश्वर्य का सुरुर
कि एक के बाद एक वतन के नूर
सब वतन छोड़ के चल दिये
बुझा के वापसी के दिये

कोसते हैं अब ईश्वर को
थोप दिया क्यूं इस वर को?
ये श्राप जैसा क्यूं वर दिया
कि पहनने लगे विदेशी वर्दीयां

ध्येय हमारे सही नहीं
श्रद्धेय हमारे कोई नहीं
जिनके पदचिन्ह मार्ग बता सके
जिनके सत्कर्म हमे जता सके
कि कोस नहीं ईश्वर को
तू थाम ले इस वर को
डगर डगर भटकने वाले बंजारे
ठहर किसी एक का बन जा रे

Friday, December 14, 2007

रात के 12 बजे


चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

रात के 12 बजे तारीख बदल जाती है
यहीं सोच कर तबियत बहल जाती है

घर बदला, नगर बदला
कुछ नहीं मगर बदला
तस्वीर वहीं रहती है फ़्रेम बदल जाती है
रात के 12 बजे तारीख बदल जाती है
यहीं सोच कर तबियत बहल जाती है

जीवन का कारवां कुछ और बढ़ाया
लाँटरी भी खरीदी प्रसाद भी चढ़ाया
सुना है एसे भी तक़दीर बदल जाती है
रात के 12 बजे तारीख बदल जाती है
यहीं सोच कर तबियत बहल जाती है

मौका हाथ में आते ही
संकट के बादल छाते ही
अच्छे-खासे लोगों की नीयत बदल जाती है
रात के 12 बजे तारीख बदल जाती है
यहीं सोच कर तबियत बहल जाती है

क़मर झुकती है बाल भी पकते हैं
तन-बदन के साथ मन भी बदलते हैं
झूठ है कि आत्मा नहीं काया बदल जाती है
रात के 12 बजे तारीख बदल जाती है
यहीं सोच कर तबियत बहल जाती है

Thursday, December 6, 2007

life की file

जब journey complete हो जाती है तब life की file delete हो जाती है धन दौलत इज़्ज़त शोहरत देह काया धन माया मौत के बाद obsolete हो जाती है Dean से पहचान हो पैसों की खान हो नदारद ईमान हो अगर ऐसे इंसान हो तो बिन पढ़े लिखे D. Litt. हो जाती है पापी पेट के मारे मिटे वर्ण-भेद सारे डिग्री मिले नौकरी मिले इसलिए हर जाति दलित हो जाती है अंग्रेज़ी बोलने से संगीत पर डोलने से टी-वी देखने से मन के द्वार खोलने से सुना है संस्कृति deplete हो जाती है सिएटल 6 दिसम्बर 2007

Wednesday, December 5, 2007

कैसे जताए अपने प्यार को

कैसे जताए अपने प्यार को चाहते हैं किसी और ही यार को हर मौसम का अपना अंदाज़ है कौन समझाए इन सदाबहार को जीत लेगा जो सबका दिल गले लगाएगा वहीं हार को जीत के भी सुख से जीता नहीं जीता जो उठा के हथियार को जान लेंगे जान लेने के बाद किस मर्ज़ ने मारा बीमार को मत है सब का कि मत मिलो मत न मिलें जिस उम्मीदवार को लेन देन से मेरा कुछ लेना देना नहीं क्या भेंट दू परवरदिगार को? परी सी बहू का बस एक वार विभाजित कर दे परिवार को जो चाहता हूं वो मिलता नहीं देख चूंका कई इश्तेहार को चाहे न चाहे सब चले जाएंगे समय न मानेगा इंकार को हाथ से छूट जाएगा सब सज़ा तो मिलेगी गुनहगार को सतयुग में जीना आसान था कलियुग भारी पड़ेगा अवतार को काश ये वक्त थम जाए यहीं सोचता हूं हर इतवार को सच खुद कह पाते नहीं कोसते हैं क्यूं अखबार को? बाजूओं में खुद के दम नहीं दोष देते हैं मझधार को सिएटल 5 दिसम्बर 2007

Tuesday, December 4, 2007

समय सारणी

रोज नौ से पाँच करता हूँ झूठ को सांच और कुछ नहीं तो करता हूँ तथ्यों की जांच सोमवार से शुक्रवार होता है यही लगातार शनि और रवि बदलती है छवि हँसता हूँ मैं हँसाता हूं मैं कुछ इस तरह ज़िन्दगी बीताता हूँ मैं गुज़ार देता हूँ जीवन बंध के एक समय सारणी में रह जाता हूँ फिर कर्मों का पहले सा ॠणी मैं सिएटल 4 दिसम्बर 2007

Monday, December 3, 2007

शुद्ध हिंदी - एक आईने में


चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

जब तक देखा नहीं आईना
अपनी खामियां नज़र आई ना


काश ये दो पंक्तियां किसी महानुभाव ने कहीं होती। आपका दुर्भाग्य है कि ये मैंने लिखी हैं। ये मेरे उस प्रयास का परिणाम है जिसमें की दुसरी पंक्ति के आखरी के शब्द पहली पंक्ति के आखरी शब्द ही होते हैं। एक हल्का सा अंतर होता है। वो यह कि या तो वो संधि द्वारा बनाए जाते है या फिर संधि विच्छेद द्वारा।

चूंकि ये मेरी पंक्तियां हैं। तो ज़ाहिर है हर कोई इस पर अपनी टिप्पणी करता है। आप इतने निराशावादी क्यूं हैं? ये क्यूं नहीं कहते कि

जब तक देखा नहीं आईना
अपनी खूबियां नज़र आई ना


कहना उनका सही है। ग्लास को आधा खाली कहने के बजाय आधा भरा भी कहा जा सकता है।

आईना बहुत उपयोगी वस्तु है। इसका उपयोग रोज हर जाति, सम्प्रदाय, और देश में समान रुप से किया जाता है। ये बहुत ही सस्ते दामों पर सबको उपलब्ध है। चाहे कोई सुबह उठ कर अपने ईष्ट देव को स्मरण करे न करे, आईने के दर्शन जरूर करता है। स्त्री, पुरुष, बच्चे, और बूढ़े सब देखते हैं कि वे कितने सुंदर है और क्या सुधार किया जा सकता है ताकि वे और सुंदर देखे। लोग उन्हें देखे तो प्रसन्न हो।

एक और आयाम नज़र आता है आईने का। वो यह कि आईने से मनोरंजन भी होता है। गाँव के मेले में अक्सर एक खेमा जरूर होता हैं जिसमें कई तरह के आईने होते है जिनमे इंसान बारी बारी से कभी मोटा तो कभी पतला, कभी लम्बा तो कभी छोटा नज़र आता है।

और आईना प्रयोगशाला में एक उपकरण के रूप में काम आता है। इस को ले कर प्रकाश के नियम और गुण आदि के बारे में प्रयोग किये जाते हैं।

आईना बच्चों का खिलोना भी है। वे इससे आलोकित दायरे को दीवार और छत पर घुमाते रहते है और उनका कौतूहल कम होने का नाम नहीं लेता।

आईना सपाट होता है और स्वभाव से अत्यंत शीतल। जो छवि दिखाता है और सच्चाई के बिल्कुल विपरीत होती है और फिर भी कोई इसे दोषी नहीं ठहराता। सब स्वयं ही इसका आशय जान लेते है और इसका धन्यवाद देते हैं।

इन सब को ध्यान में रखते हुए, मैंने इस स्तम्भ का नाम आईना रखा है। कभी मनोरंजन करेगा तो कभी खूबीयां दिखाएगा तो कभी खामियां।

मुझे कविता लिखने की प्रेरणा कबीर के दोहो से मिली। मेरा मानना है कि उन के जैसा गागर में सागर भरने वाला और कोई नहीं। हास्य, व्यंग्य और दर्शन में वे पारंगत थे। उनका ये दोहा मुझे खास तौर से पसंद है -

रंगी को नारंगी कहे, बने दूध को खोया
चलती को गाड़ी कहे, देख कबीरा रोया।


सुना तो इसे आपने कई बार होगा। ये एक हिंदी फ़िल्म के गीत के शुरूआत में भी गाया गया है। इसे समझने के लिए इसे कई बार पढ़ना होगा। तीनों तथ्य एक से बड़ कर एक विडम्बना को उजागर करते है। नारंगी एक बेहद रंगीन फ़ल है और उसे दुनिया ने नारंगी का नाम दे दिया। जब दूध का खोया बना लिया जाता है तो वो आपके सामने है और दुनिया उसे कहती है खोया। जो वाहन है, चलायमान है उसे दुनिया कहती हैं गाड़ी! गाड़ी तो लकड़ी जाती है, गाड़े तो मुर्दे जाते हैं। गाड़ी का मतलब जो एक जगह पर अटक जाए। जो वहां से हिल न सके।

मुझे भी शब्दों से खेलना बहुत अच्छा लगता है। हर कविता में कुछ न कुछ शब्द आ ही जाते हैं जिनके दो अर्थ हो। ऐसी कविताएं फिर मैं blog पर प्रकाशित कर देता हूं और मित्रों को भेज देता हूं। पिछले एक साल से सिएटल शहर में हर महीने के चौथे शनिवार को मैं अपने घर एक काव्यगोष्ठी का आयोजन करता हूं। इसमें इस शहर में रहने वाले और कविता लिखने वाले या इसमें रचि रखने वाले सम्मिलित होते हैं। पिछले हफ़्ते मैं एक पुस्तक विमोचन के कार्यक्रम में गया था। वहाँ मेरा परिचय देते हुए कहा गया कि ये हर महीने नियमित रुप से गोष्ठी का आयोजन कर के हिंदी के सेवा कर रहे हैं। तो मेरे मन में तुरंत एक वाक्य कौंध गया - 'मैं मासिक धर्म निभा रहा हूं।' मैं सोचता रहा कि अगर मासिक धर्म लगातार चलता रहे और कभी ये क्रम टूटे नहीं तो सृजन कैसे होगा? और फिर मेरा शब्दो से खेल शुरु हो गया जो दूसरे दिन जा के रुका जब 'जन्म' कविता पूरी हो गई। ये एक संयोग ही था कि वो मेरा जन्म दिन भी था।

जन्म के पीछे कामुक कृत्य है
यह एक सर्वविदित सत्य है

कभी झुठलाया गया
तो कभी नकारा गया
हज़ार बार हमसे ये सच छुपाया गया

कभी शिष्टता के नाते
तो कभी उम्र के लिहाज से
'अभी तो खेलने खाने की उम्र है
क्या करेंगे इसे जान के?'

सोच के मंद मुस्करा देते थे वो
रंगीन गुब्बारे से बहला देते थे वो

बड़े हुए तो सत्य से पर्दे उठ गए
और बच्चों की तरह हम रुठ गए
जैसे एक सुहाना सपना टूट गया
और दुनिया से विश्वास उठ गया

ये मिट्टी है, मेरा घर नहीं
ये पत्थर है, कोई ईश्वर नहीं
ये देश है, मातृ-भूमि नहीं
ये ब्रह्मांड है, ब्रह्मा कहीं पर नहीं

एक बात समझ में आ गई
तो समझ बैठे खुद को ख़ुदा
घुस गए 'लैब' में
शांत करने अपनी क्षुदा

हर वस्तु की नाप तौल करे
न कर सके तो मखौल करे

वेदों को झुठलाते है हम
ईश्वर को नकारते है हम
तर्क से हर आस्था को मारते हैं हम

ईश्वर सामने आता नहीं
हमें कुछ समझाता नहीं

कभी शिष्टता के नाते
तो कभी उम्र के लिहाज से
'अभी तो खेलने खाने की उम्र है
क्या करेंगे इसे जान के?'

बादल गरज-बरस के छट जाते हैं
इंद्रधनुष के रंग बिखर जाते है


इस कविता को बहुतों ने पसंद किया। और नहीं भी किया तो कम से कम जन्मदिन की बधाईयां तो जरुर भेजी गई।

पर दो नई बातें सुनने में आई। एक तो ये कि ज्यादातर लोग खुश थे कि इस कविता में वेदो और ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकारा गया है। दूसरा ये कि इसमें ज्यादातर शब्द हिंदी के थे। उर्दू के इक्का-दुक्का शब्द थे। मुझे सलाह दी गई कि आप हिंदी को भ्रष्ट होने से बचा ले। अगर ख़ुदा को कविता से जुदा कर दिया जाए तो अच्छा होगा।

सामान्यत: मैं अपने आप को कविता तक ही सीमित रखता हूं। कविता के अलावा कुछ नहीं कहता। और न ही कविता की सफ़ाई देता हूं। पर चूंकि अब मंच सामने हैं तो कुछ कहना चाहूंगा। मैं रतलाम में और रतलाम जिले में (शिवगढ़ और सैलाना) पला हूं। वहां पर हम मालवी या साधारण हिंदी बोलते थे। नई दुनिया एक मात्र अखबार था। उसे देने अखबार वाला आता था। अखबार का बिल आता था हर महीने। मेरे नाना गाँधीवादी थे और प्राथमिक विद्यालय चलाते थे जिसे लोग त्रिवेदी प्राईवेट स्कूल के नाम से जानते थे। देखिये, बिना अंग्रेज़ी और उर्दू के इतनी छोटी सी बात भी पूरी नहीं की जा सकी।

एक और उदाहरण। आप जाइये एक दूर-दराज के गाँव में जहाँ एक अधेड़ उम्र की माँ है जो कड़ी मेहनत कर के अपना घर चलाती है। उस के पास वक्त नहीं है कि वो या उसकी भाषा राजनीति से या फ़िल्मी दुनिया से या टीवी से प्रभावित हो। उससे आप कहिये कि - 'माई, तेरे बेटे के नम्बर अच्छे नहीं आए है इसलिए वो फ़ैल हो गया है। तू उसकी कोई अच्छी सी ट्यूशन लगा दे। हो सकता है वो अगली बार पास हो जाए।'

अब आप यहीं बात कह कर देखे बिना नम्बर, फ़ैल, ट्यूशन और पास के। बहुत मुश्किल है। और आप अगर शव्दकोश की सहायता से कह भी दे तो मैं नहीं समझता कि वो माँ उस बात को समझ पाएगी।

क्या फ़ायदा हैं इस तरह से हिंदी को संकीर्ण बनाए रखने की? आग भी उतना ही ठीक शब्द है जितना कि अग्नि। मुझे समझ नहीं आता है कि क्यूं कुछ लोग बात बात पर हिंदी का झंडा फ़हराने से बाज नहीं आते? खुद तो अंग्रेज़ी पढ़ लिख कर आगे निकल लिए। अब चाहते हैं कि बाकी लोग पीछे ही रहे तो बेहतर है। एक सज्जन तो यहाँ तक लिख बैठे कि 'हिंदी केवल गांव और गरीबों तक सीमित रह गई है। जैसे जैसे गरीबी हटती जाएगी, वैसे वैसे हिंदी मरती जाएगी।'

मेरे लिए ये एक सुखद घटना होगी। गरीबी हटाने का प्रयत्न कई वर्षो से किया जा रहा है। अगर हम इसमें सफ़ल हो गए तो ये एक हर्ष का विषय है। मातम मनाने का नहीं। रही बात हिंदी के मरने की। वो ऐसे तो मरने वाली है नही। और अगर मर भी गई तो कोई गम नहीं। मैं हमेशा से इस पक्ष में हूं कि इंसान बेकार में ही बटा हुआ है जाति में, प्रांत में, राज्य में, देश में, भाषा में, धर्म में। क्या ही अच्छा हो जब सारी सीमाएं हट जाए और हम सब आज़ादी से जहाँ जाना चाहे, जा सके। न पासपोर्ट की आवश्यकता हो और न हीं किसी दूसरी भाषा को जानने की ज़रुरत।

दूसरी बात भाषा भ्रष्ट होने की। नए शब्द जोड़ने से भाषा बलवान होती है, भ्रष्ट नहीं। शुद्धता सिर्फ़ शुद्धता की वजह से नही होनी चाहिए। प्राय: सारी शुद्ध वस्तुएं इतनी उपयोगी नहीं होती है जितनी कि मिलावट के बाद। 100% शुद्ध लोहा किसी काम का नहीं होता है। उसमें मिलावट कर के स्टील बनाया जाता है। 100% खरे सोने से भी आभूषण नहीं बनाए जा सकते हैं जब तक कि मिलावट न हो।

समृद्ध और खुश-हाल भारत

हाथी के दांत खाने के अलग और दिखाने के अलग होते हैं। यह बात समृद्ध और खुश-हाल भारत पर भी लागू होती है। एक तरफ़ हैं विप्रो के अज़िम प्रेमजी और रिलाएन्स का अम्बानी परिवार, दूसरी ओर हैं आत्महत्या करते हुए किसान। एक तरफ़ हैं कोक और पेप्सी, दूसरी ओर है पीने के पानी को तरसती हुई ग्रामीण जनता। असलियत यही है कि बावजूद इतनी तरक्की के आज भी भारत में कामयाब वही समझा जाता है जो देश छोड कर विदेश में धन अर्जित करता है। गांधी जी को सम्बोधित करते हुए मैंने लिखा है -
'भारत छोड़ो आन्दोलन हुआ है अब कामयाब,
मेरे वतन में एक भी होनहार नौजवां नहीं मिलता
'।   भारत छोड़ने की मेरी इच्छा कतई नहीं थी। हालांकि, मेरे पिता 1966 में इंग्लैंड जा भी चुके थे और 3 साल में पी-एच-डी ले कर आ भी गए थे। मैं 1986 में बनारस से इंजीनियरिंग खत्म कर चुका था और हाथ में एक सरकारी नौकरी भी थी। विदेश जा कर दर-दर की ठोकरे खाने में कोई तुक नहीं दिखाई दे रहा था। मैं आरामपसंद व्यक्ति हूँ। मेरे विचार में स्नातकोत्तर शिक्षा से आज तक किसी का भला नहीं हुआ है।
'कितनी निराली है शिक्षा प्रणाली,
'पास' होते होते सब दूर हो गए'।
  मेरे मामा मेट्रिक पास थे और अपने परिवार के हमेशा पास थे। उनके साथ मैंने कई सुखद गर्मी की छुट्टीयां बितायी है रुनखेड़ा में, जहां वे स्टेशन मास्टर थे। एक बार मुझसे 5 वीं कक्षा में पूछा गया था, क्या बनोंगे बड़े हो कर? मैंने कहा था, "स्टेशन मास्टर!"   बहरहाल, क्लाँस के सब साथी अमेरिका जा रहे थे सो मैं भी निकल पड़ा। और अगले चार साल तक मास्टर्स और एम-बी-ए के दौरान कई पापड़ बेले। मगर कहीं भी कड़वाहट महसूस नहीं हुई, अमेरिका में सब जगह खूब स्नेह मिला। दिक्कत थी तो बस एक कि भारत में सब कुछ बना-बनाया मिल जाता था। घर पर माँ थी और बनारस के होस्टल में महाराज था। यहाँ खुद ही दाल-रोटी बनाओ। बर्तन भी मांजो। कपड़े भी धोओ। झाडू फटका भी करो। 'चले थे बड़ी धूम से बादशाह बनने,
काम काज में फ़ंसे मज़दूर हो गए'
और ये सिलसिला अभी भी जारी है। बड़े से बड़े ओहदे वाला व्यक्ति खुद कार चलाता है, खुद सब्जी-भाजी खरीदता है, खुद कपड़े धोता है, खुद की चाय-काँफ़ी बनाता है, खुद झाड़ू-फ़टका करता है और खुद खाना भी बनाता है। हालांकि मशीनों - वाँशिंग मशीन, वैक्यूम क्लीनर - से आसानी जरूर हो जाती है। पर घर या दफ़्तर में कोई सेवा में हाज़िर नौकर नज़र नहीं आता है।   मैंने भारत में इन्जीनियरिंग की पढ़ाई अवश्य अंग्रेज़ी में की थी। मगर अंग्रेज़ी में कभी वार्तालाप नहीं किया था। अमेरिका में पेट पूजा के लिए कंप्यूटर प्रोग्रामिंग पढ़ाने लगा विश्वविध्यालय में। जाहिर है अंग्रेजी में ही पढ़ाना था। यह मेरे लिए एक गर्व की बात थी कि जिसने 5 वीं कक्षा तक ए बी सी डी तक नहीं सीखी थी, आज 20-25 अमरीकी नवयुवकों को उनकी ही भाषा में एक नई भाषा (पास्कल) सीखा रहा था। और मुझे अपने छात्रों से यथोचित सम्मान भी मिला। और तब मुझे शर्म आई यह सोच कर कि किस तरह हम नए अध्यापक का मज़ाक उड़ाया करते थे बनारस में।   ग्लानि इस बात की हमेशा रही कि 7 हज़ार मील की दूरी के बहाने से घर की सारी जिम्मेदारीयों से हाथ धो लिया। न किसी की शादी में शामिल हुए न किसी की बरसी में। न किसी के लिए नौकरी की सिफ़रिश की और न किसी की दवा-दारु की।  माँ की टक्कर हो गई थी स्कूटर से। कमर में काफ़ी चोट आई। बिस्तर पर रही हफ़्तों तक। मैं यहाँ टी-वी पर देखता रहा डायना और मदर टेरेसा का अंतिम सफ़र। फ़ोन से बातचीत जरुर होती थी। पर फ़ोन पर किसी को गले नहीं लगाया जा सकता। कंधे पर सर नहीं रख सकते। निगाहें नीची कर के थोड़ी देर चुप नहीं रह सकते। माँ माथे को चूम नहीं सकती। बालों को सहला नहीं सकती। गला भर आने पर पानी का ग्लास नहीं दे सकती।   सच! कितनी त्रासदी है एक एन आर आई के जीवन में।
'जब हम अपनों के नहीं हुए,
तो किसी और के क्या होंगे,
पूछ लो किसी भी कामयाब से,
किस्से यहीं बयां होंगे'
 
21 साल से यहाँ हूं। तब से आज तक यही सुनता आया हूँ - 'मेरा भारत महान'।
'परदेस में बस जाने के बाद,
चर्चे वतन के मशहूर हो गए'



'भारत बहुत तरक्की कर रहा है।' 'अमेरिका अपने आप को असुरक्षित समझ रहा है।' 'यहाँ की नौकरियाँ धीरे-धीरे बैंगलोर और हैदराबाद जा रही है।' आदि, आदि। इस वजह सॉफ्टवेयर के क्षेत्र में अमरीकी कर्मचारीयों के पेट पर सीधा-सीधा वार हुआ है। जाहिर है उन्हें ये कतई पसंद नहीं है। कुछ राज्य सरकारों ने इसी कारण ये निर्णय लिया है कि वे किसी भी एसी संस्था को काम नहीं देंगे जिसके संबंध भारत की कंपनी से हैं। हालांकि इस निर्णय से खास फ़र्क नहीं आया है। चूंकि ये गिने-चुने राज्य तक ही सीमित है। नौकरियाँ तो जा ही रही हैं भारत की ओर, पर भारत से अब भी हज़ारो की तादात में नवयुवक आ रहे हैं। पहले वो आते थे उच्च शिक्षा प्राप्ति के लिए अपनी योग्यता के बल पर। आज आते हैं विप्रो, इन्फ़ोसिस आदि की छत्र-छाया में। वे आते हैं सस्ती दरों पर वही काम करने जिसे अमरीकी नागरिक कर रहा था महंगी दरों पर। तो जाहिर है, ऐसे भारतीय कर्मचारी अमरीकी जनता का सम्मान पाने में असमर्थ रहते हैं। पर इस वजह से कंपनी की बचत होती है और बहुत मुनाफ़ा। वाँल-स्ट्रीट भी खुश। अब आप सोच रहे होंगे कि चलो कम से कम कंपनी के मालिक तो इन भारतीय कर्मचारीयों की इज़्ज़्त करते होंगे। लेकिन ऐसा बिल्कुल भी नहीं है। जैसे कि आप घर बना रहे हैं और आपको मजदूर चाहिए जो ईंट, पत्थर, गारा उठा सके, मिला सके, और दीवारें खड़ी कर सके। ये काम आपके शहर के लोग कर सकते है 100 रुपये में और दूसरी तरफ़ हैं दूसरे शहर के लोग जो यह काम कर सकते हैं 70 रुपयें में। आप दूसरे शहर के कर्मचारियों से काम करा के 30 रुपये बचाएंगे जरूर मगर आप की नज़रों में उनकी इज़्ज़त नहीं बड़ जाएंगी। काम खत्म हुआ और आप अपने रस्ते और वो कर्मचारी अपने रस्ते पर। सम्मान अर्जित करने के लिए कुछ नया होना चाहिए। बजाए इसके कि आप कोई भी काम पूरा करने के लिए एक सस्ते मज़दूर की तरह हाज़िर हो जाएं। अगर आप इस घर की रूपरेखा तैयार करने वाले आँर्किटेक्ट हैं और आपका काम बहुत बेहतरीन है, तब स्वाभाविक है कि आपको प्रचुर सम्मान मिलेंगा। पिछले 10 साल में जो भारत के विकास की बात अमेरिका तक पहुँच रही है वो साँफ़्टवेयर सेवा तक ही सीमित है। और इस क्षेत्र में भारत एक सस्ते मज़दूर के रूप में देखा जा रहा है। एक मजे की बात और कि विप्रो, इन्फ़ोसिस की बदौलत अब भारत में साँफ़्टवेयर क्षेत्र में वेतन स्तरों में प्रचुर वृद्धि हुई है। इस कारण काफ़ी भारतीय जो अमरीका में बस गए थे अब भारत वापसी की तैयारी कर रहे हैं। रोज सुनने में आता है कि फलाना हिन्दुस्तान जा रहा है उस कंपनी में डायरेक्टर बन कर तो इस कंपनी में मैनेजर बन कर। मगर दूध का जला छाछ को भी फूंक-फूंक कर पीता है। भई सच पूछो तो अमेरिका में भेद-भाव है और उपर से झेलने अनगिनत उतार-चढ़ाव हैं जो नौकरी आज है वो कल नहीं चिन्ता रहती है हर पल यही अब तो भारत में भी नौकरिया ढेर हैं और मां-बाप के भी कबर में पैर हैं सोचता हूँ हिन्दुस्तान में बस जाऊँ बस पहले अमेरिकन सिटिज़न बन जाऊँ हर महफ़िल में हर आदमी इस बात की घोषणा करता है कि वो भारत का शुभचिंतक है। मेरा ये विचार है कि भारत का विकास हो, सम्पन्न हो खुशहाल हो, रोजी-रोटी सबके पास हो, सुनते ही कि डाँलर गिर गया, सारा बुखार उतर गया  अंत में निष्कर्ष यही कि हम यहाँ के रहन-सहन के, तौर-तरीको के और ज़रुरतों के आदि हो गए हैं। और डॉलर चाहे कितना भी गिर जाए उसकी खरीदी क्षमता दुनिया की बाकी मुद्राओ से ज्यादा ही रहेगी। यहाँ आदमी एक साल के वेतन में वो सब खरीद सकता है जिसे अन्य देशों के नागरिक कई सालों की कमाई में भी नहीं पा सकते है। पहले हम अपना भविष्य सुधारने आए थे। अब हम अपने बच्चों का भविष्य सुरक्षित रखना चाहते हैं। पहले मैं कहता था कि हम अभिमन्यू की तरह चक्रव्यूह में घुस तो गए हैं पर निकलने में असमर्थ हैं। अब लगता है कि ये कैंसंर की तरह एक ला-ईलाज मर्ज़ है। बाबुल चाहे सुदामा हो ससुराल चाहे सुहाना हो नया रिश्ता जोड़ने पर अपना घर छोड़ने पर दुल्हन जो होती है दो आँसू तो रोती है और इधर हर एक को खुशी होती है जब मातृभूमि संतान अपना खोती है क्यूं देश छोड़ने की इतनी सशक्त अभिलाषा है? क्या देश में सचमुच इतनी निराशा है? जाने कब क्या हो गया वजूद जो था खो गया ज़मीर जो था सो गया लकवा जैसे हो गया भेड़-चाल की दुनिया में देश अपना छोड़ दिया धनाड्यों की सेवा में नाम अपना जोड़ दिया अपनी समृद्ध संस्कृति से अपनी मधुर मातृभाषा से मुख अपना मोड़ लिया माँ बाप का दिया हुआ नाम तक छोड़ दिया घर छोड़ा देश छोड़ा सारे संस्कार छोड़े स्वार्थ के पीछे-पीछे कुछ इतना तेज दौड़ें कि न कोई संगी-साथी है न कोई अपना है मिलियन्स बन जाए यही एक सपना है करते-धरते अपनी मर्जी हैं पक्के मतलबी और गर्जी हैं उसूल तो अव्वल थे ही नहीं और हैं अगर तो वो फ़र्जी हैं पैसों के पुजारी बने स्टाँक्स के जुआरी बने दोनों हाथ कमाते हैं फिर भी क्यूं उधारी बने? किसी बात की कमी नहीं फिर क्यूं चिंताग्रस्त हैं? खाने-पीने को बहुत है फिर क्यूं रहते त्रस्त हैं? इन सब को देखते हुए उठते कुछ प्रश्न हैं पैसा कमाना क्या कुकर्म है? आखिर इसमें क्या जुर्म है? जुर्म नहीं, यह रोग है विलास भोगी जो लोग है 'पेरासाईट' की फ़ेहरिश्त में नाम उनके दर्ज हैं पद-पैसो के पीछे भागना एक ला-इलाज मर्ज़ है

Friday, November 30, 2007

क्या हुआ तेरा वादा, वो क़सम वो इरादा


चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

क्या हुआ तेरा वादा, वो क़सम वो इरादा
मिलेगी डिग्री, जिस दिन तुम्हें
वो दिन 'यू-एस' में आखिरी दिन होगा
क्या हुआ तेरा वादा, वो क़सम वो इरादा

याद है मुझको तूने कहा था
तुमसे नहीं रुठेंगे कभी
फिर जिस तरह से हम पले हैं
कैसे भला जीएंगे कहीं
तेरी 'कोचिंग' में बीती हर शाम
के तुझे कुछ भी याद नहीं
क्या हुआ ...

ओ कहने वाले मुझको गरीब
कौन गरीब है ये बता
वो जिसने घर लिया उधार के पैसो से
या जिसने 'कैश' में तुझे भेज दिया
नशा दौलत का ऐसा भी क्या
बेवफ़ा ये तुझे याद नहीं
क्या हुआ ...

भूलेगा दिल जिस दिन तुम्हें
वो दिन जिन्दगी का आखिरी दिन होगा
क्या हुआ तेरा वादा, वो कसम वो इरादा


(मजरूह सुल्तानपुरी से क्षमायाचना सहित)

अगर एन-आर-आई, तुमको पहचान जाते


चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

अगर एन-आर-आई, तुमको पहचान जाते
ख़ुदा की क़सम तुम्हे ग्रेजुएट न करते
जो मालूम होता, ये इलज़ाम-ए-तालीम
तो तुम को पढ़ाने की ज़ुर्रत न करते

जिन्हें तुमने समझा मेरी बेवकूफ़ी
मेरी ज़िन्दगी की वो मजबूरियाँ थीं
हाँ, पढ़ाई तुम्हारी इंग्लिश में की थी
क्यूंकि सरकार ने तो पहनी चूड़ियाँ थीं
अगर सच्ची होती शिक्षा तुम्हारी
तो घबरा के तुम यूँ शिकायत न करते

जो हम पर है गुज़री हमीं जानते हैं
सितम कौन सा है नहीं जो उठाया
निगाहों में फिर भी रही तेरी सूरत
हर एक सांस में तेरा पैगाम आया
अगर जानते तुम ही इलज़ाम दोगे
तो भूले से भी हम तुम्हे शिक्षित न करते

(प्रेम धवन से क्षमायाचना सहित)

ऐ दौलत तेरे बंदे हम


चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

ऐ दौलत तेरे बंदे हम
ऐसे है हमारे करम
अपनो से जुदा
चाटे बाँस का जूता
ताकि 'मिलियन' तो हो कम से कम

जब 'ले-आँफ़' का हो सामना
तब तू ही हमें थामना
कोई बुराई करें
हम बड़ाई करें
तूझको ही ईश्वर जानना
बढ़ चले 'केसिनो' को कदम
हर तरह के करें खोटे करम
अपनो से जुदा ...

ये डाँलर गिरा जा रहा
और एन-आर-आई घबरा रहा
हो रहा बेखबर
कुछ न आता नज़र
सुख का सूरज छिपा जा रहा
है किस 'करेंसी' में वो दम
जो अमावस को कर दे पूनम
अपनो से जुदा ...

बड़ा गरीब है एन-आर-आई
चाहे लाखों में कर ले कमाई
सर झुकाए खड़ा
हाथ फ़ैलाए खड़ा
पेट काट काट के जोड़े पाई-पाई
दिया तूने जो 'मिलियन' सनम
नहीं होगी भूख इसकी खतम
अपनो से जुदा ...

(भरत व्यास से क्षमायाचना सहित)

Thursday, November 29, 2007

NRI का सफ़र


चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

NRI का सफ़र, है ये कैसा सफ़र
कोई समझा नहीं, कोई जाना नहीं
है ये कैसी डगर, चलते हैं सब मगर
कोई समझा नहीं कोई जाना नहीं

Dollar को बहुत प्यार हमने किया
रुपयों से भी मुहब्बत निभाएंगे हम
H1 का विसा ले के आये मगर
Citizenship ले के जाएंगे हम
जाएँगे पर किधर, दिल्ली या बैंगलोर
कोई समझा नहीं कोई जाना नहीं

ऐसे NRI भी हैं जो टिके ही नहीं
जिनको greencard से पहले ही pink slip आ गयी
फूल ऐसे भी हैं जो खिले ही नहीं
जिनको खिलने से पहले फ़िज़ा खा गई
है परेशां नज़र, थक गये चारागर
कोई समझा नहीं कोई जाना नहीं

है ये कैसी डगर चलते हैं सब मगर
कोई समझा नहीं कोई जाना नहीं
NRI का सफ़र है ये कैसा सफ़र
कोई समझा नहीं कोई जाना नहीं

(इंदीवर से क्षमायाचना सहित)

Tuesday, November 27, 2007

क्रिसमस

छुट्टीयों का मौसम है
त्योहार की तैयारी है
रोशन हैं इमारतें
जैसे जन्नत पधारी है

कड़ाके की ठंड है
और बादल भी भारी है
बावजूद इसके लोगों में जोश है
और बच्चे मार रहे किलकारी हैं

यहाँ तक कि पतझड़ की पत्तियां भी
लग रही सबको प्यारी हैं
दे रहे हैं वो भी दान
जो धन के पुजारी हैं

खुश हैं खरीदार
और व्यस्त व्यापारी हैं
खुशहाल हैं दोनों
जबकि दोनों ही उधारी हैं

भूल गई यीशु का जन्म
ये दुनिया संसारी है
भाग रही उसके पीछे
जिसे हो-हो-हो की बीमारी है

लाल सूट और सफ़ेद दाढ़ी
क्या शान से संवारी है
मिलता है वो माँल में
पक्का बाज़ारी है

बच्चे हैं उसके दीवाने
जैसे जादू की पिटारी है
झूम रहे हैं जम्हूरें वैसे
जैसे झूमता मदारी है

Monday, November 26, 2007

जन्म

जन्म के पीछे कामुक कृत्य है यह एक सर्वविदित सत्य है कभी झुठलाया गया तो कभी नकारा गया हज़ार बार हमसे ये सच छुपाया गया कभी शिष्टता के नाते तो कभी उम्र के लिहाज से 'अभी तो खेलने खाने की उम्र है क्या करेंगे इसे जान के?' सोच के मंद मुस्करा देते थे वो रंगीन गुब्बारे से बहला देते थे वो बड़े हुए तो सत्य से पर्दे उठ गए और बच्चों की तरह हम रुठ गए जैसे एक सुहाना सपना टूट गया और दुनिया से विश्वास उठ गया ये मिट्टी है, मेरा घर नहीं ये पत्थर है, कोई ईश्वर नहीं ये देश है, मातृ-भूमि नहीं ये ब्रह्मांड है, ब्रह्मा कहीं पर नहीं एक बात समझ में आ गई तो समझ बैठे खुद को ख़ुदा घुस गए 'लैब' में शांत करने अपनी क्षुदा हर वस्तु की नाप-तौल करे न कर सके तो मखौल करे वेदों को झुठलाते हैं हम ईश्वर को नकारते हैं हम तर्क से हर आस्था को मारते हैं हम ईश्वर सामने आता नहीं हमें कुछ समझाता नहीं कभी शिष्टता के नाते तो कभी उम्र के लिहाज से 'अभी तो खेलने खाने की उम्र है क्या करेंगे इसे जान के?' बादल गरज-बरस के छट जाते हैं इंद्रधनुष के रंग बिखर जाते हैं सिएटल, 26 नवम्बर 2007 (मेरा जन्म दिन)

Friday, November 23, 2007

mail और email

mail थी सुस्त email है चुस्त mail थी महंगी email है मुफ़्त email का सिलसिला हुआ शुरु डाकिये का आना-जाना हो गया बंद पड़ोसी भी भेजने लगे email और मेल-मिलाप का हो गया अंत mail में कई बाधाएं थी नाप-तौल की सीमाएं थी फिर भी साथ ले आते थे छोटे लिफ़ाफ़ो में बहनों का गर्व हर भैया दूज और राखी के पर्व mail में कई बाधाएं थी नाप-तौल की सीमाएं थी फिर भी साथ ले आते थे होठों की लाली, हल्दी के निशां जो जता देते थे प्रेम कुछ लिखे बिना mail में कई बाधाएं थी नाप तौल की सीमाएं थी फिर भी साथ ले आते थे माँ के आंसूओं से मिटते अक्षर जो अभी तक अंकित हैं दिल के अंदर mail में कई बाधाएं थी नाप तौल की सीमाएं थी email में नहीं कोई रोक-टोक बकबक करे या भेजे joke पूरे करे आप अपने शौक किस काम का ये बेलगाम विस्तार? समाता नहीं जिसमें अपनों का प्यार gigabyte का folder गया है भर एक भी खत नहीं उसमें मगर जो मुझको आश्वासित करे न cc हो न bcc हो मुझको बस सम्बोधित करे आदमी या तो है आरामपरस्त या फिर है कुछ इस कदर व्यस्त कि थोक में बनाता पैगाम है auto signature से करता प्रणाम हैं सब है सुविधा के नशे में धुत्त धीरे धीरे सब हो रहा है लुप्त mail थी सुस्त email है चुस्त mail थी महंगी email है मुफ़्त सिएटल 23 नवम्बर 2007

Tuesday, November 20, 2007

Thanksgiving की पार्टी

एक नहीं, दो नहीं कहानी है हर घर की पकेगी और सजेगी आज शानदार टर्की राष्ट्रपति ने प्रतीक के रुप में छोड़ दी सुंदर सी एक टर्की अलबत्ता सैंडवीच के बीच फिर भी खाएंगे वो टर्की दयालु समाज की कहानी है ये murky सिएटल 20 नवम्बर 2007

Thanksgiving की छुट्टी

ले-दे के छुट्टी में मिले हैं चार दिन दो शाँपिंग में गुज़रेंगे और दो कार में आलिशान रिसोर्ट हमसे महंगी फ़ीस लेंगे बर्फ़ीली पहाड़ियों पर बच्चे फ़िसलेंगे लुभावने इश्तहारों पर हम फ़िसलेंगे तड़के उठ कर बारगैन प्राईस' पर माँल आदि जा कर नया माल खरीदेंगे देर रात तक दोस्तों के घर माल आदि खा कर नसीहत खरी देंगे चार दिन की छुट्टी है पर हम अत्यंत व्यस्त होंगे देर तक सोने के सपने सारे ध्वस्त होंगे कुछ कर गुज़रने के इरादे सारे पस्त होंगे वक़्त बर्बाद करने में भागीदार हमारे हस्त होंगे सिएटल 20 नवम्बर 2007

Monday, November 19, 2007

किनारे-किनारे

हम दोनों के बीच प्यार था प्यार बेशुमार था बेशुमार इतना जितना दो 'बीच' के बीच लहलहाता समंदर मैं था उस किनारे तुम थी इस किनारे प्यार ने खींचा हमें एक दूसरे की ओर तुम थोड़ी बदली मैं थोड़ा बदला मैं चला तुम्हारी तरफ़ और तुम मेरी ओर मंज़ूर नहीं था हमें मझधार में मिलना मैं चलता रहा तुम चलती रही अब मैं हूँ इस किनारे और तुम उस किनारे हम दोनों के बीच अब भी प्यार बहुत है राहुल सिएटल 19 नवम्बर 2007

Friday, November 16, 2007

blog को blog ही रहने दो


चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

हमने देखी हैं
इन blogs की टपकती लारें
भूल से भी इन्हें
comments का इनाम न दो
सिर्फ़ बकवास हैं ये
दूर से ignore करो
blog को blog ही रहने दो
कोई नाम न दो
हमने देखी हैं …

blog कोई wiki नहीं
blog website नहीं
एक email है
आए दिन post हुआ करती है
न कोई लिखता है
न कोई पढ़ता है
न पढ़ी जाती है
एक chain mail है
जो forward हुआ करती है
सिर्फ़ बकवास हैं ये
दूर से ignore करो
blog को blog ही रहने दो
कोई नाम न दो
हमने देखी हैं …

sinister से remarks
छुपे रहते हैं
smileys में कहीं
spelling mistakes से
भरे रहते हैं
sentences कई
बात कुछ कहते नहीं
काम की या कमाल की मगर
journalism की डींग भरा करते हैं
सिर्फ़ बकवास हैं ये
दूर से ignore करो
blog को blog ही रहने दो
कोई नाम न दो
हमने देखी हैं …

(गुलज़ार से क्षमायाचना सहित। फ़िल्म 'खामोशी' के लिए लिखे इस गीत को >यहाँ देखे)
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इतना सब कहने के बाद आप मेरे blog पर comments जरूर लिखे :)

दान

कभी विधान सभा तो कभी लोक सभा चुनाव का माहौल रहता है सदा 'मत'दान करें 'मत'दान करें देस में ये नारे कान भरें हम कहते हैं आप दान करें जितना हो सके उतना दान करें कुछ अभागों का कल्याण करें जीवन ज्योति का सम्मान करें गिरे हुओं का उत्थान करें कुछ दान करें कुछ दान करें आओ चलो आह्वान करें हम सब कुछ दान करें काम एक महान करें भारत पर सब अभिमान करें इस आशा को बलवान करें सिएटल, 16 नवम्बर 2007

Wednesday, November 14, 2007

प्रेम कहानी


चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

एक था हीरो
एक थी हिरोईन
हीरो को था
हिरोईन से प्यार
हिरोईन को था
हीरों से प्यार

हीरो था गबरु जवान
बजाते ही उसके सीटी बस
रुक जाती थी चलती 'सिटी बस'

हिरोईन थी गज़ब की सुन्दर
निकलती थी जब घर से बाहर
होश खो देती थी सारी 'सिटी' बस

एक था हीरो
एक थी हिरोईन
हीरो को था
हिरोईन से प्यार
हिरोईन को था
हीरों से प्यार

प्यार का मारा होता है 'फ़ूल'
रोज देता था उसे दर्जनो फूल
पढ़ना लिखना छोड़
'क्लाँस' करता था गुल
काँलेज में इस तरह
खिलाता था गुल

एक था हीरो
एक थी हिरोईन
हीरो को था
हिरोईन से प्यार
हिरोईन को था
सिर्फ़ हीरों से प्यार

उसे मंजूर नहीं था
हीरो की चार पाई की
कमाई से खरीदी
चारपाई पर चैन से सोना
उसे चाहिए थी चैन
जिस में हो दस तोला सोना

दे न सका
हीरों का हार
इस तरह हुई
इस हीरो की हार

एक था हीरो
एक थी हिरोईन
हीरो को था
हिरोईन से प्यार
हिरोईन को था
सिर्फ़ हीरों से प्यार

हीरो हुआ बड़ा निराश
और बन गया देवदास
एक दिन जो गया एक 'बार'
जाने लगा बार बार

प्रेम प्यार के किस्से
कहता भी तो किससे?
उसके मन की वेदना
समझ सका कोई वेद ना

नैन से आंसू बरस गए
और गुज़र दो बरस गए

बाप ने पूछा
तू इतना क्यूं पीता है?
मुझे तो बता
आखिर मैं तेरा पिता हूं

इश्क में लाचार हूं
इसलिए पीता हूं
धिक्कार है मुझे
कि मैं हार के भी जीता हूं

एक था हीरो
एक थी हिरोईन
हिरोईन को था
सिर्फ़ हीरों से प्यार
हीरो को हुआ
'हेरोईन' से प्यार

Wednesday, November 7, 2007

मूर्ति पूजा

बिक गया है जो लुट गया है वो तराना पुराना हो गया है वो पूजा जिनकी हो रही है आज मंडप में जो कर रहे हैं राज लाला की दुकान पर बिक रहे थे वो सुनार-कुम्हार के हाथों पिट रहे थे वो कौड़ियों के भाव बिक जाते हैं जो समृद्ध हमें करेंगे वो? बिकना जिनके मुकद्दर में हो मोक्ष हमें दिलाएंगे वो? पंडित के सुलाने से सो जाते हैं जो किस्मत हमारी जगाएंगे वो? पलक झपकते ही विसर्जित हो जाते हैं जो भव सागर पार कराएंगे वो? लालची का लोभ है या प्रेमी का प्यार है दुखियारे का दर्द है या सतसंग का संस्कार है शिल्पी का हुनर है या भक्ति का चमत्कार है दुनिया जिसे कहती है पत्थर करती उसी का सत्कार है आज एक और त्यौहार है लगा रिवाज़ों का बाज़ार है हम भी उसमें जुट गए जहाँ सबसे लम्बी कतार है भरा हुआ भंडार है सम्पदा जहाँ अपार है गरीब से गरीब भी वहाँ दे रहा उपहार है बिक गया है जो लुट गया है वो तराना पुराना हो गया है वो 7 नवंबर 2007

Tuesday, November 6, 2007

दीवाली की छुट्टी


चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

लगता है आपको गलत है भरम
कि दीवाली मनानें में हमें हैं शरम

लक्ष्मी की पूजा
और लक्ष्मी कमाना
दोनो को हमने
एक है माना
इसीलिए छुट्टी नहीं लेते हैं हम
लगता है आपको गलत है भरम
कि दीवाली मनानें में हमें हैं शरम

मिठाई की दुकान
नहीं होती है बंद
लक्ष्मी कैसे आए
जब दुकान हो बंद
करम का ही दूसरा नाम है धरम
लगता है आपको गलत है भरम
कि दीवाली मनानें में हमें हैं शरम

आँफ़िस से छुट्टी
शायद मिल भी जाए
पर स्कूल से
कैसे 'बंक' किया जाए
इम्तहान न दिया तो 'फ़ैल' होंगे हम
लगता है आपको गलत है भरम
कि दीवाली मनानें में हमें हैं शरम

दीवाली का दिन भी
ठीक से तय नहीं
आज है या कल
कोइ सहमत नहीं
'वीकेंड' पे मिलो करो झगड़ा खतम
लगता है आपको गलत है भरम
कि दीवाली मनानें में हमें हैं शरम

जैसा है देस
वैसा है भेस
मिल-जुल के खाओ-पिओ
खूब करो ऐश
खामखां आप यूं हो नहीं गरम
लगता है आपको गलत है भरम
कि दीवाली मनानें में हमें हैं शरम

Friday, November 2, 2007

दीवाली की शुभकामनाएं


चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

दीवाली की रात
हर घर आंगन
दिया जले
उसने जो
घर आंगन दिया
वो न जले

दिया जले
दिल न जले
यूंहीं ज़िन्दगानी चले

दीवाली की रात
सब से मिलो
चाहे बसे हो
दूर कई मीलों
शब्दों से उन्हे
आज सब दो
न जाने फिर
कब दो

दुआ दी
दुआ ली
यहीं है दीवाली

अक्टूबर 2000

दीवाली की यादें


चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

दीवाली मनाए
हो गया एक ज़माना
जीने का मतलब
जब से हो गया कमाना

न स्कूल हैं बंद
न हैं आँफ़िस में छुट्टी
किस्मत भी देखो
किस तरह है फ़ूटी
बाँस को भी था
आज ही सताना

दीवाली मनाए
हो गया एक ज़माना
जीने का मतलब
जब से हो गया कमाना

न वो पूजा का मंडप
न वो फूलों की खुशबू
न वो बड़ों का आशीष
न वो अपनो की गुफ़्तगू
समां फिर ऐसा
मिले तो बताना

दीवाली मनाए
हो गया एक ज़माना
जीने का मतलब
जब से हो गया कमाना

वो मिठाई के डब्बे
वो दस तरह के व्यंजन
न था डाँयबिटिज़ का डर
न थे डाँयटिंग के बंधन
वो खूब खिला के
अपनापन जताना

दीवाली मनाए
हो गया एक ज़माना
जीने का मतलब
जब से हो गया कमाना

वो गलियों में रंगत
वो दहलीज़ पे रंगोली
वो रंगीं पोषाकों में
बच्चों की टोली
सपना सा लगता है
अब वो ज़माना

दीवाली मनाए
हो गया एक ज़माना
जीने का मतलब
जब से हो गया कमाना

याद आता है
वो पटाखों का शोर
बारूद में महकी
वो जाड़ों की भोर
वो रात-रात भर
दीपक जलाना

दीवाली मनाए
हो गया एक ज़माना
जीने का मतलब
जब से हो गया कमाना

सिएटल
24 अक्टूबर 2005

Thursday, November 1, 2007

एक और दीवाली


चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

अब कहाँ की दीवाली
और कैसी दीवाली
आएगी और जाएगी
एक और दीवाली

होली का माहौल हो
या दीवाली का त्यौहार
मनाया जाता है
सिर्फ़ शनिवार रविवार

अब कहाँ की दीवाली
और कैसी दीवाली
आएगी और जाएगी
एक और दीवाली

एक ही तरह की
महफ़िल है सजती
निमंत्रण देने पर
घंटी है बजती
कर के वही
बे-सर-पैर की बातें
गुज़ारी जाती हैं
वो दो-चार रातें

अब कहाँ की दीवाली
और कैसी दीवाली
आएगी और जाएगी
एक और दीवाली

त्यौहार-दर-त्यौहार
वहीं लाल-पीले
कपड़े पहने हैं जाते
वही घिसे-पिटे जोक्स
सुनाए हैं जाते
वही छोले
वही मटर-पनीर
वहीं गुलाब जामुन
और वही खीर

अब कहाँ की दीवाली
और कैसी दीवाली
आएगी और जाएगी
एक और दीवाली

पैसे की होड़ में
आगे बढ़ने की दौड़ में
पार की थीं सरहदें
और पार कर गए कई हदें

दोस्तों से बंद हुआ
दुआ-सलाम
भूल गए करना
बड़ों को प्रणाम
धूल खा रहा है
पूजा का दीपक
रामायण के पोथे को
लग गई है दीमक

अब कहाँ की दीवाली
और कैसी दीवाली
आएगी और जाएगी
एक और दीवाली

महानगर की गोद में
इमारतों की चकाचौंध में
हैं अपनों से दूर
हम सपनों के दास
न पूनम से मतलब
न अमावस का अहसास

अब कहाँ की दीवाली
और कैसी दीवाली
आएगी और जाएगी
एक और दीवाली

21 अक्टूबर 2006

Wednesday, October 31, 2007

Halloween

दुखी है दुनिया परेशान हैं लोग दिन-प्रतिदिन बढ़ रहे हैं रोग डाँक्टर का फ़रमान है कहता हर विद्वान है मक्खन न खाओ चीनी न खाओ इस तरह अपनी सेहत बचाओ मोटापा भी बड़ता है डाँयबिटीज़ भी होती है डेंटिस्ट की कुर्सी में खिंचाई भी होती हैं इन सबके बावजूद हम अपने हाथ खुद हमारे-तुम्हारे पेट कर देते हैं भेंट करोड़ों की कैंडी करोड़ों की चाँकलेट हम जागरुक देश के निवासी जाग के भी सो रहे हैं बच्चों के लिए हम कैसा भविष्य बो रहे हैं? यहाँ कद्दू पर कद्दू कत्ल हो रहे हैं तो कहीं बिलखते बच्चे भूखे सो रहे हैं यहाँ डरावने मुखौटों में हम हास्य ढूंढ रहे हैं तो कहीं कूढ़े कचरे में वो खाना ढूंढ रहे हैं सिएटल 31 अक्टूबर 2007

Sunday, October 28, 2007

कैसी होगी दीवाली?

जलेंगे दीपक सजेगा मकां हँसी-खुशी का होगा समां मिलेंगे लोग भूलेंगे रोग खाएंगे मिठाई लगाएंगे भोग आंखों में चमक, अधरों पे मुस्कान मीठी-मीठी बातें बोलेंगी ज़ुबां जलेंगे दीपक सजेगा मकां हँसी-खुशी का होगा समां फटेंगे फ़टाखें गुंजेगे धमाके गली-गली होंगे दोस्तों के ठहाके ये सब कुछ होगा वहाँ और हम-तुम होंगे यहाँ जलेंगे दीपक सजेगा मकां हँसी-खुशी का होगा समां काली रात ठंडी बरसात यहाँ होंगी हमारे साथ शायद हो दिसम्बर में यहाँ जो होगा नवम्बर में वहाँ जलेंगे दीपक सजेगा मकां हँसी-खुशी का ा होगा समां उदास न हो निराश न हो इस तरह हताश न हो अभी से जलाओ शमां जो जनवरी तक रहे जवां जलाओ दीपक सजाओ मकां हँसी-खुशी का बनाओ समां सिएटल 27 अक्टूबर 2007

Friday, October 26, 2007

प्रतिभा पलायन


चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

पिछड़ा हुआ कह के
देश को पीछे छोड़ दिया
सोने-चांदी के लोभ में
पराये से नाता जोड़ लिया

एक ने कहा
ये बहुत बुरा हुआ
इनके नागरिकता त्यागने से
देश हमारा अपमानित हुआ

दूसरे ने कहा
ये बहुत अच्छा हुआ
इनके नागरिकता त्यागने से
देश हमारा नाग-रिक्त हुआ

करवा चौथ

भोली बहू से कहती हैं सास तुम से बंधी है बेटे की सांस व्रत करो सुबह से शाम तक पानी का भी न लो नाम तक जो नहीं हैं इससे सहमत कहती हैं और इसे सह मत करवा चौथ का जो गुणगान करें कुछ इसकी महिमा तो बखान करें कुछ हमारे सवालात हैं उनका तो समाधान करें डाँक्टर कहे डाँयटिशियन कहे तरह-तरह के सलाहकार कहे स्वस्थ जीवन के लिए तंदरुस्त तन के लिए पानी पियो, पानी पियो रोज दस ग्लास पानी पियो ये कैसा अत्याचार है? पानी पीने से इंकार है! किया जो अगर जल ग्रहण लग जाएगा पति को ग्रहण? पानी अगर जो पी लिया पति को होगा पीलिया? गलती से अगर पानी पिया खतरे से घिर जाएंगा पिया? गले के नीचे उतर गया जो जल पति का कारोबार जाएंगा जल? ये वक्त नया ज़माना नया वो ज़माना गुज़र गया जब हम-तुम अनजान थे और चाँद-सूरज भगवान थे ये व्यर्थ के चौंचले हैं रुढ़ियों के घोंसले एक दिन ढह जाएंगे वक्त के साथ बह जाएंगे सिंदूर-मंगलसूत्र के साथ ये भी कहीं खो जाएंगे आधी समस्या तब हल हुई जब पर्दा प्रथा खत्म हुई अब प्रथाओं से पर्दा उठाएंगे मिलकर हम आवाज उठाएंगे करवा चौथ का जो गुणगान करें कुछ इसकी महिमा तो बखान करें कुछ हमारे सवालात हैं उनका तो समाधान करें 25 अक्टूबर 2007

Thursday, October 18, 2007

कामयाबी

जब हम अपनों के नहीं हुए तो किसी और के क्या होंगे पूछ लो किसी कामयाब से किस्से यही बयां होंगे जवानी यहाँ बुढापा वहाँ भटकेंगे ता-उम्र यहाँ-वहाँ दूर के ढोल लुभाएंगे हम जहां में जहाँ होंगे जब हम अपनों के नहीं हुए... देस में आते थे परदेस के सपने परदेस में आते हैं याद वतन के अपने हम से ज्यादा confused दुनिया में और कहाँ होंगे जब हम अपनों के नहीं हुए ... जिन्होंने हमें सब दिया उन्हें हम क्या दे सकेंगे? इतना सब कुछ होते हुए क्या कुछ भी दे सकेंगे? मदद के वक़्त पर वो वहाँ तो हम यहाँ होंगे जब हम अपनो के नहीं हुए ... 22 अगस्त 2007

Wednesday, October 17, 2007

आत्मकथ्य

लिख नहीं पाता हूं राजी खुशी की दो-चार लाईने तक माँ-बाप को और लिख रहा हूँ लम्बे-लम्बे blog जिसे भेजता हूं रोज आप को Atoms की feed RSS की feed बो रही है क्रांति के seed सोचता हूँ मैं भी उजागर करूं एकाध आस्तीन के सांप को लिख नहीं पाता हूं… छपते ही किताब धूल खाती है जनाब छपते ही blog Aggregators जाते हैं जाग Bits और bytes के बीच छोड़ जाना चाहता हूं अपनी अमिट छाप को लिख नहीं पाता हूं… क्या-क्या खोया क्या-क्या पाया वक्त मुझे कहाँ ले आया बड़ी धूम से दर्शाता हूं blog पर हर एक पुण्य और पाप को लिख नहीं पाता हूं… 17 अक्टूबर 2007

Monday, October 15, 2007

कामना


चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

अमीर और गरीब, राजा और रंक
सबके सब रह जाते हैं दंग
विधि का विधान कभी न रुका है
इसके आगे हर मस्तक झुका है
भर दे गर सागर कोई रो रो के
जानेवाले फिर भी न जाते हैं रोके

रात और दिन, सुबह और शाम
सूझता है बस काम ही काम
अपनो को छोड़ अपनाते हैं धंदे
थोड़ा सा ज्यादा अगर वो धन दे
जोड़ते हैं सोना चार चार पाई कर
जबकि सोना है बस एक चारपाई पर

पूरब और पश्चिम, उत्तर और दक्षिण
हम सब है एक, नहीं हैं भिन्न
तब तक ही बस दिल हमारा धड़के
जब तक है साथ सिर हमारे धड़ के
बात बात पर गर हम भड़के
मुद्दे उठेंगे नए एक रण के
क्या मिलेगा दुनिया को लड़ के?
गरीबों ने बस गवाएं हैं लड़के

ईश्वर से करे हम ऐसी कामना
बुरा हो हमसे कोई काम ना
आओ चलो कसम हम ले
आदमी आदमी पे करे न हमले
बने हम तुम कुछ ऐसे गमले
जो खुशीयां दे और हर हर गम ले
मेहमां हैं हम पल दो पल के
हंसे-हंसाए जब तक खुली हैं पलके
आंसू किसी के कभी न छलके
करे न काम कपट और छल के
हेंकड़ी न हांके ताकत और बल की
शरण में जाए ईश्वर के बल्कि

Friday, October 12, 2007

मेल-जोल

एक ही देश से आए हैं एक ही शहर में रहते हैं सपने हमारे एक हैं काम भी एक ही करते हैं जब हम इतने मिलते-जुलते हैं तो फिर कम क्यूं मिलते-जुलते हैं? नाक-नक़्श एक है वेश-परिवेश भी एक है गाना-बजाना एक है ज्ञान-ध्यान भी एक है खुशबू एक ही होती है जब टिफ़िन हमारे खुलते हैं जब हम इतने मिलते-जुलते हैं तो फिर कम क्यूं मिलते-जुलते हैं? जिम्मेदारियों का बोझ हैं दस परेशानियाँ रोज हैं हमसे बंधी किसी की आशा है तो किसी को मिली निराशा है हाँ दिल हमारे भी टूटते हैं इंसान हैं हम क्यूं भुलते हैं? जब हम इतने मिलते-जुलते हैं तो फिर कम क्यूं मिलते-जुलते हैं? खुशीयाँ तो हम बाँटते हैं ग़म क्यूं अकेले काटते हैं? शर्मनाक कोई दुःख नहीं दुःख क्यूं सब से छुपाते हैं? कांटे तो होंगे ही वहाँ जो बाग फ़लते-फ़ूलते हैं जब हम इतने मिलते-जुलते हैं तो आओ चलो फ़िर मिलते हैं 12 अक्टूबर 2007

Tuesday, October 9, 2007

मौसम


चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

मौसम
राहुल उपाध्याय

पतझड़ के पत्ते
जो जमीं पे गिरे हैं
चमकते दमकते
सुनहरे हैं

पत्ते जो पेड़ पर
अब भी लगे हैं
वो मेरे दोस्त,
सुन, हरे हैं

मौसम से सीखो
इसमें राज़ बड़ा है
जो जड़ से जुड़ा है
वो अब भी खड़ा है
रंग जिसने बदला
वो कूढ़े में पड़ा है

घमंड से फ़ूला
घना कोहरा
सोचता है देगा
सूरज को हरा

हो जाता है भस्म
मिट जाता है खुद
सूरज की गर्मी से
हार जाता है युद्ध

मौसम से सीखो
इसमें राज़ बड़ा है
घमंड से भरा
जिसका घड़ा है
कुदरत ने उसे
तमाचा जड़ा है

Friday, October 5, 2007

Stalled Marriage

Stalled Marriage राहुल उपाध्याय Relationships एक dangerous street है जो कल तक प्रीत था आज बना culprit है Perfumes की gift Earrings की gift Cable के remote में हो गई हैं shift कड़वे घूंट ही अब birthday की treat हैं कभी नखरे उठाते थे कभी पाँव दबाते थे कभी-कभी रुठ जाने पर dozen flowers लाते थे आज बात बात पर किये जाते mistreat हैं रफ़्ता-रफ़्ता रिसते-रिसते रिश्ता बन जाता है बोझ तू-तू मैं-मैं होती है रोज झगड़े आदि होते हैं रोज दोनों में से कोई भी करता नहीं retreat है पहले करते थे wish आज घोलते है विष साथ-साथ रहते हैं पर जैसे aquarium में fish जिसकी walls में glass नहीं concrete है लिये थे फेरे खाई थी कसमें किये थे वादे निभाएंगे रसमें सिंदूर-मंगलसूत्र के साथ लापता marital spirit है

Sunday, September 30, 2007

राम सेतु


चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

कुछ कह्ते है कि
ये कैल्सियम की जमावट है
और कुछ कहते है कि
ये राम सेतु है

राम जाने क्या सच है
और क्या है कोरी कहानी
पर एक बात है जो
कह्ते है ज्ञानी-ध्यानी
राम तुझ से नही
राम से तू है

वाद-विवाद का
आखिर क्या कारण है?
सच पूछो तो
अपना-अपना सब का रण है

कोई प्रगतिवादी है
तो कोई पर्यावरण का पक्ष लेता है
कोई राजनेता है
तो कोई धर्म की आड़ लेता है

हे हनुमान राम जानकी
रक्षा करो
हम सब की जान की

क्रिकेट विजय

२४ साल से जी रहे थे
मन अपना मार के
इसी आस में जीते थे
हर एक मैच हार के
फिर जीत के कप लाएंगे
दुश्मन को संहार के
आज समाप्त हुए है
सारे दिन इन्तज़ार के
युवराज गंभीर विजयी हुए
चौके छक्के मार के

२४ घन्टे में दिन बदलते है
२४ साल में भाग्य है बदला
पाकिस्तान इंग्लैन्ड आदि से
लिया खूब जम के बदला

बदली सब की कमेंट्री
बदली सब की टिप्पणियां
बदली छप्पर फाड़ के बरसी
मिली सब को गाड़ीया
मिला करोड़ युवराज को
तो मिसबाह को मिली कोड़ीयां

एक विडम्बना सामने आयी
प्रशंसको के व्यवहार से
जीत के आयी हुई टीम का
स्वागत हो रहा है हार से

हाथी के दाँत (Hypocrisy)

1
न मांग में सिन्दूर है
न गले में मंगल-सूत्र है
और शिकायत ये कि
भारतीय संस्कृति
स्वीकारता नहीं सुपुत्र है

2
मेरा ये विचार है कि
भारत का विकास हो
सम्पन्न हो खुशहाल हो
रोजी-रोटी सबके पास हो
सुनते ही कि DOLLAR गिर गया
सारा बुखार उतर गया
इन्तज़ार है उस दिन का
जब एक DOLLAR में
मिलते रुपये पचास हो

3
भई सच पूछो तो
AMERICA में भेद-भाव है
और उपर से
झेलने अनगिनत उतार-चढ़ाव है
जो नौकरी आज है वो कल नहीं
चिन्ता रहती है हर पल यही
अब तो भारत में भी नौकरिया ढेर हैं
और मां-बाप के भी कबर में पैर है
सोचता हूं हिन्दुस्तान में बस जाऊ
बस पहले AMERICAN CITIZEN बन जाऊ

4
दस SECOND के दर्शन से
भाग्य हमारे खुल जाएंगे
नदी के ठन्डे पानी से
पाप हमारे धुल जाएंगे
पंडित और पुजारी
जो हमें ये समझाते हैं
नदी-मन्दिर छोड़ के
खुद ही भाग जाते हैं
AMERICA के MAKESHIFT मन्दिर में
GREENCARD-धारी पुजारी बन जाते हैं

दूर के मुसाफ़िर

दूर के मुसाफ़िर चलते-चलते थक के हम चूर हो गए वक़्त के हाथों पाँव मजबूर हो गए चले थे बड़ी धूम से बादशाह बनने काम-काज में फ़से मज़दूर हो गए किस क़दर निराली है शिक्षा प्रणाली 'पास' होते-होते सब दूर हो गए परदेस में बस जाने के बाद चर्चे वतन के मशहूर हो गए आस थी जिनसे कि उबारेंगे हमें सियासत के ताज में कोहिनूर हो गए किस-किस से बचाए दिल-ए-नादान को छोटे-मोटे कीटाणु तक शूर हो गए कब और कहाँ मिलेगी वो रामबाण दवा कि इक खुराक़ ली और गम दूर हो गए 24 जून 2007