Tuesday, August 5, 2008

आज उसे मैंने अपना जाना

ज़िंदगी
इतनी हसीन
इतनी खूबसूरत
इतनी दिलकश
भी हो सकती है
ये मैंने तब माना
जब
आज उसे मैंने अपना जाना

वो खोई-खोई आँखें
वो होंठों पे पहरा
वो दहकते गाल
वो प्यारा सा चेहरा

उफ़ ये सादगी
और ये भोलापन
कि मैं भी गया
और गया मेरा मन

न है हूर जैसी
न कोई अप्सरा है वो
न है जूही की कली
न शबनम का कतरा है वो

और न उसका चेहरा है चाँद जैसा
न उसके होंठ है गुलाब की पंखुड़ियाँ

अच्छा ही है क्योंकि
न तो चाँद को मैंने
कभी चूमना चाहा
न गुलाब की पंखुड़ियों को मैंने
कभी पर्त-दर-पर्त खोलना चाहा

जैसी भी है
बहुत अच्छी है वो
बहुत प्यारी
बहुत भली है वो
बस गई मेरे
दिल की गली है वो

ज़िंदगी
इतनी हसीन
इतनी खूबसूरत
इतनी दिलकश
भी हो सकती है
ये मैंने तब माना
जब
आज उसे मैंने अपना जाना

सिएटल,
5 अगस्त 2008

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2 comments:

राजीव रंजन प्रसाद said...

ज़िंदगी
इतनी हसीन
इतनी खूबसूरत
इतनी दिलकश
भी हो सकती है
ये मैंने तब माना
जब
आज उसे मैंने अपना जाना


क्या बात है!!! बहुत खूब!!!


***राजीव रंजन प्रसाद

Anonymous said...

"और न उसका चेहरा है चाँद जैसा
न उसके होंठ है गुलाब की पंखुड़ियाँ

अच्छा ही है क्योंकि
न तो चाँद को मैंने
कभी चूमना चाहा
न गुलाब की पंखुड़ियों को मैंने
कभी पर्त-दर-पर्त खोलना चाहा"


कुछ अलग सोच...