पंडित को करता जप देखा
साधु को करता तप देखा
गिरजा दरगाह सब देखा
हर तरह का मजहब देखा
पर कभी नहीं रब देखा
आग उगलता पर्वत देखा
सागर पलटता करवट देखा
ज़मीं पे झुकता नभ देखा
कुदरत का हर करतब देखा
पर कभी नहीं रब देखा
उमड़ता घुमड़ता सावन देखा
हरा भरा सा वन देखा
इधर-उधर जब देखा
सौन्दर्य लबालब देखा
पर कभी नहीं रब देखा
किसी को मन-मरजी करते देखा
किसी को जीते जी मरते देखा
सुख और दु:ख सब देखा
हर तरह का मतलब देखा
पर कभी नहीं रब देखा
तुम्हें अपना बनते देखा
सांसों में तुम्हें घुलते देखा
तुम्हें प्रफ़ुल्लित जब देखा
जीवन होता सुलभ देखा
और यहीं कहीं रब देखा
सिएटल,
7 अगस्त 2008
Thursday, August 7, 2008
और यहीं कहीं रब देखा
Posted by Rahul Upadhyaya at 1:01 AM
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Labels: intense, relationship, TG, valentine, worship
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4 comments:
रब तो हर कण-कण में हैं.
हर पल में, हर छन-छन में हैं।
गर गौर से सुनो तो हर वादी के,
सन्नाटे के सन-सन में हैं।
..Ravi
सत्य वचन महाराज.
बहुत खूब.
Bahut dino bad Acha padne ko mila ...
Good keep it up....
I loved to read it !!
Kabhi nahin rab dekha !!
Aapki poems bahut achhi hai, lagta hai aapka blog mujhe favorites me add karna padega...
Bahut badhia !!
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