जितने भी सगे थे सब के सब सगाँ निकले
परायों के आगोश में दिल के अरमाँ निकले
अंधे थे हम और अंधी थी चाहत हमारी
तिस पर तुर्रा ये कि हम बेज़ुबाँ निकले
दूर से देते रहे उम्र भर का वादा मुझे
पास आए तो दो दिन के मेहमाँ निकले
कुछ यूँ खेली आँख-मिचौली ज़िंदगी ने मुझसे
कि जिनके पीछे मैं आया यहाँ वो वहाँ निकले
काटने को तो काट सकता है 'राहुल' अकेला इसे
बशर्ते सफ़र के अंत में चार शख़्स मेहरबाँ निकले
सिएटल,
7 अगस्त 2008
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सगे = blood relatives
सगाँ = कुत्तें, dogs
तिस पर तुर्रा = and on top of that
Thursday, August 7, 2008
जितने भी सगे थे सब के सब सगाँ निकले
Posted by Rahul Upadhyaya at 5:40 PM
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6 comments:
वाह!!! बहुत अच्छी गज़ल..
***राजीव रंजन प्रसाद
shaandar.aur shabd nahi hai taareef ke liye,badhai
दूर से देते रहे उम्र भर का वादा मुझे
पास आए तो दो दिन के मेहमाँ निकले
"very nice one"
Regards
शब्द चमत्कार प्रभावित करता है!
Very nice, Rahul! Har sher bahut hi deep hai.
One of the best I have ever read..
Bahut hi badhia !!
Very well composed. Mazaa aa gya padh kar...
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