जिन उंगलियों को मैंने कभी छुआ नहीं
उन से टाईप किए हुए शब्द
मेरे दिल को छू जाते हैं
उन्हे पढ़ कर
मेरा रोम-रोम खिल उठता है
जिन होंठों को मैंने कभी चूमा नहीं
उनसे निकली आवाज़
मुझे प्यारी लगती है
फोन होता है कान पर
लेकिन
सीधे दिल में उतर जाती है
वो कहती है
कि हम मिलेंगे
जबकि
वो जानती है
कि हम नहीं मिलेंगे
ये रिश्ते
जो हवा में बनते हैं
हवा जैसे ही होते हैं
दिखते नहीं
लेकिन
यहीं कहीं
आसपास
सदा बरकरार रहते हैं
सिएटल,
30 जुलाई 2008
Wednesday, July 30, 2008
हवाई किले
Posted by Rahul Upadhyaya at 12:07 AM
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Tuesday, July 29, 2008
गुड नाईट
"गुड नाईट"
"भाड़ में जाए आप"
पवित्र प्यार
"गुड नाईट"
"भाड़ में जाओ तुम"
विशुद्ध क्रोध
तुम या आप
चाहे जो कहो तुम
अपना लगे
मैं और तुम
करें बातें ऐसे ही
प्रार्थना करें
सिएटल,
29 जुलाई 2008
Posted by Rahul Upadhyaya at 11:09 PM
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Labels: relationship, valentine
कविता क्या है?
कविता
एक रचना है
जिसमें कवि न जाने कैसे कैसे गुमाँ पालते हैं
शब्दों से उसमें जान डालते हैं
और उसके ख़ुद अपने ही
उस रचना से दूर भागते हैं
कविता
एक रचना है
जिसे लिखने में कवि दिन-रात एक करते हैं
एक एक शब्द करीने से सजा कर रखते हैं
और पढ़ने वाले
मात्र 30 सेकंड के लिए
उस पर सरसरी निगाह डालते हैं
कविता
एक रचना है
जिसे कवि मंच पर पढ़ते हैं
और श्रोता हंसते हैं
क्योंकि वो इसे चुटकला समझते हैं
कविता
एक रचना है
जिसमें कवि वातानुकुलित कमरे में
व्हिस्की पीते हुए
गरीबी और भूखमरी की बातें लिखते है
और राष्ट्रीय पुरुस्कार प्राप्त करते हैं
कविता
एक रचना है
जिसके साथ 40 और रचनाएँ ठूंस कर
कवि किताब छपवाते हैं
लोगों में बांटते हैं
और उनसे उसे पढ़ने की आस रखते हैं
कविता
एक रचना है
जिसे कवि अपने ब्लॉग पर लिखते हैं
दूसरों के ब्लॉग पर टिप्पणी देते हैं
और बदले में उनसे टिप्पणी की राह तकते हैं
सिएटल,
29 जुलाई 2008
Posted by Rahul Upadhyaya at 5:57 PM
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Sunday, July 27, 2008
क़हर - एक बार फिर
[http://groups.yahoo.com/group/HINDI-BHARAT/message/1045] ये मसला भी आजकल का नहीं है। जब अंग्रेज़ नहीं थे, जब मुसलमान नहीं थे, ईसाई धर्म नहीं था, ईस्लाम धर्म नहीं था, अंग्रेज़ी नहीं थी, उर्दू नहीं थी, तब भी इस तरह के झगड़े-विवाद आम थे। कुरुक्षेत्र में हुए महाभारत के युद्ध के लिए आप इन में से किसी को जिम्मेदार नहीं ठहरा सकते। तो ये मानना बेकार है कि कल से अगर ये दोनो धर्म, इनके अनुयायी और इनकी भाषा विलुप्त हो जाए तो सारे विवाद खत्म हो जाएंगे। इसलिए कई बार तो दिल कहता है कि जो भोंकते हैं उन्हें भोंकने दो। क्या फ़ायदा इनके मुँह लगने से। लेकिन क्या किया जाए। मेरा भी मन नहीं माना। मैंने एक लेख लिखा था 'गर्भनाल' में। तब भी कविता वाचक्नवी जी ने उसका जवाब दिया था अपने ब्लाग पर। लेकिन वो जवाब 'गर्भनाल' में नहीं आया। न जाने क्यों? जैसा कि मैं पहले भी अन्य लेख में लिख चुका हूँ - मुझे हिंदी लिखने का अभ्यास नहीं है। कविता एक आसान तरीका है - कम शब्द होते हैं, अधूरे वाक्य होते हैं और व्याकरण की थोड़ी-बहुत छूट होती है - इसलिए लिख लेता हूँ। लेकिन देर आए दुरुस्त आए। बहस का मौका आया है तो हिंदी में गद्य लिखने का प्रयास कर रहा हूँ। और वैसे भी हिंदी में तर्क-वितर्क का अपना ही मजा है। जिस सरकार की, जिस सोनिया गाँधी की ये भर्त्सना करते हैं, अगर अगले प्रवासी दिवस पर यही सरकार और यही सोनिया जी इन्हें पुरुस्कार प्रदान करें तो ये उनके सामने सर झुकाएंगे और अपने घर में उनके साथ लिया हुआ फोटो शान से सजाएंगे। जब भी कोई ऐसी दु:खद घटना होती है जिसमें आतंकवाद का अंदेशा हो तो इनकी बांछे खिल आती है। लोहा गरम है। अभी चोट मारो। निकालो सारी ज़हर वाली बातें। आज के दिन तो सब सुनेंगे। औरंगज़ेब को मरे हुए कई वर्ष हो गए हैं लेकिन आज हम उसे फिर से ज़िंदा करेंगे। सब का खून खौला कर रहेंगे। 60 साल पहले हुए विभाजन की एक एक दर्दनाक दास्तां को हम दोहरा कर रहेंगे। अगले 3 महीने तक अगर कोई विस्फोट न हो और हो भी तो 10 से कम मृत हो तो इनको मवाल होगा कि क्या बात है - ये शांति किसलिए? अब कैसे हम अपनी बात आगे बढ़ाएं। एक दूसरे के प्रति बैर स्वाभाविक है। भाई-भाई में दुश्मनी होती है। अड़ोसी-पड़ोसी में अनबन होती है। लेकिन इन बातो को बड़े पैमाने पर हवा देना और भुनाना एक घिनौना कृत्य है। हम अपनी संस्कृति में पैदा होते हैं, वो हमें विरासत में मिलती है। उसे हम चुन कर नहीं अपनाते हैं। हम क्या बोलते हैं, क्या पहनते हैं, क्या खाते हैं, किसे पूजते हैं, ये सब हम तराजू के पलड़ों में तोल कर नहीं तय करते हैं। चूंकि घर में सब हिंदी बोलते थे, इसलिए मैं हिंदी बोलता हूँ। इसका मतलब ये नहीं कि मैंने सारी दुनिया की भाषाओं की निष्पक्ष तुलना की और फिर इस नतीजे पर पहुँचा कि हिंदी विश्व की सर्वश्रेष्ठ भाषा है, और इसलिए मुझे इसके प्रचार-प्रसार में जुट जाना चाहिए। यह बात खाने-पीने, रहन-सहन और पूजा-पाठ पर भी लागू होती है। शाकाहारी भोजन या मांसाहारी? साड़ी या जीन्स? अमेरिका के इसी परिवेश मे, इसी मौसम में, एक लड़की और उसकी माँ अलग अलग सोच रखती हैं। भारत के परिवेश में पली-बड़ी लड़की जब ब्याह कर यहाँ आती है तो जीन्स में खुश रहती है। और जब उसकी माँ यहाँ आती है तो माँ साड़ी में खुश है। दोनो उसी पगडंडी पर घूमने जाती है हर शाम। एक साड़ी में और एक जीन्स में। क्या जीन्स बेहतर है या साड़ी? दोनो तर्क दे सकती हैं अपने अपने चुनाव के पक्ष में। लेकिन दोनों को ये मिले थे परिवेश से और बाद में उन्होने अपनी-अपनी सहुलियत से एक को पकड़े रखा और दूसरे को छोड़ दिया। इस प्रकार आदमी का जीवन ढलता जाता है - संस्कार से, परिवेश से, सहुलियत से। कुछ पर तर्क-वितर्क के बाद बदलाव आ जाते हैं - जैसे कि खान-पान या साड़ी-जीन्स आदि। लेकिन कुछ बातों पर रुढ़ियाँ इतनी गहरी होती हैं कि विश्वास ही नहीं होता कि इन्हें भी बदला जा सकता हैं। उदाहरण के तौर पर जनेउ-चोटी-तिलक तो गायब हो गए लेकिन बिना मंदिर के हम अपने धर्म-समाज की कल्पना ही नहीं कर सकते। जबकि अगर ध्यान से हमारे धार्मिक ग्रंथों का अवलोकन किया जाए, तो ये साबित हो जाएगा कि मंदिर की प्रथा हमारे समाज में थी ही नहीं। न अर्जुन ने मंदिर में पूजा की, न कृष्ण ने। अयोध्या तब भी था। रामसेतु तब भी था। वाल्मिकी की रामायण तब भी थी। एक भी बार न कृष्ण, न पांडव, न कौरव, न भीष्म कभी अयोध्या गए माथा टेकने या रामसेतु पानी चढ़ाने। या कि कृष्ण ने गीता के 700 श्लोक में एक बार भी राम के आदर्श जीवन का हवाला देते हुए कहा कि - सुन पार्थ, जब श्री राम के सामने संकट आए तो उन्होंने उनका कैसे सामना किया। तुम्हे भी उनसे कुछ सीखना चाहिए। रामकथा में निहित नैतिक, मौलिक, आध्यात्मिक ज्ञान को सीखना चाहिए। एक और बात। दीवाली के बारे में हर बच्चे को बता दिया जाता है कि दीवाली तब से मनाई जा रही है जब से श्री राम रावण का वध कर के अयोध्या आए थे। लेकिन महाभारत का कोई पात्र कभी दीवाली के उत्सव की चर्चा नहीं करता है। या आप ये बता दे कि वनवास के दौरान, पांडवों की पहली दीवाली कैसे बीती? या कि कहीं दशहरा का ज़िक्र हो या रामनवमी का। ये सब आधुनिक काल की उपज है। लेकिन थोप ऐसी दी गई है कि अब यह शास्वत सत्य है। भाषा भ्रष्ट होने की जो आज बात कर रहे हैं - वे शायद तुलसी का भी उतना ही विद्रोह करते जब वे अवधि में रामचरितमानस लिख रहे थे। आज हिंदी की पताका फ़हरा रहे हैं। सोचिए, कृष्ण अगर आज आ जाए तो उन्हें कितना कष्ट होगा कि मैंने एक सुसंस्कृत भाषा संस्कृत में अच्छी तरह से गीता सुनाई, व्यास मुनि ने दोहराया और गणेश ने लिखी और आज जनता उसे छोड़ उसके अनुवाद पढ़ रही है। निष्कर्ष यह कि जब तक हम पूर्वाग्रह से ग्रसित है, वाद-विवाद से कोई सार निकलता नहीं है। सारे तर्क-वितर्क व्यर्थ है ऐसे वातावरण में। अंत में प्रस्तुत है ये कविता , जो कि है तो छ: साल पुरानी लेकिन दुर्भाग्यवश अभी तक पुरानी नहीं हुई। इससे पहले कि कोई मुझे इस पर बधाई दे, कॄपया एक निगाह बधाई कविता पर भी डाल ले। क़हर पहले भी बरसा था क़हर अस्त-व्यस्त था सारा शहर आज फ़िर बरसा है क़हर अस्त-व्यस्त है सारा शहर बदला किसी से लेने से सज़ा किसी को देने से मतलब नहीं निकलेगा पत्थर नहीं पिघलेगा जब तक है इधर और उधर मेरा ज़हर तेरा ज़हर बुरा है कौन, भला है कौन सच की राह पर चला है कौन मुक़म्मल नहीं है कोई भी महफ़ूज़ नहीं है कोई भी चाहे लगा हो नगर-नगर पहरा कड़ा आठों पहर न कोई समझा है न समझेगा व्यर्थ तर्क वितर्क में उलझेगा झगड़ा नहीं एक दल का है मसला नहीं आजकल का है सदियां गई हैं गुज़र हुई नहीं अभी तक सहर नज़र जाती है जिधर आँख जाती है सिहर जो जितना ज्यादा शूर है वो उतना ज्यादा क्रूर है ताज है जिनके सर पर ढाते हैं वो भी क़हर आशा की किरण तब फूटेंगी सदियों की नींद तब टूटेंगी ताज़ा हवा फिर आएगी दीवारे जब गिर जाएंगी होगा जब घर एक घर न तेरा घर न मेरा घर सेन फ़्रांसिस्को 24 सितम्बर 2002 (अक्षरधाम पर हमले के बाद) सिएटल, 27 जुलाई 2008 Pasted from <http://mere--words.blogspot.com/search?q=%E0%A5%98%E0%A4%B9%E0%A4%B0>
Posted by Rahul Upadhyaya at 6:29 PM
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Friday, July 25, 2008
हम अमरीका में रहते हैं
हम अमरीका में रहते हैं
तीस हज़ार की गाड़ी है
और पांच-दस पैसे सस्ती कहीं गैस मिल जाए
इस चक्कर में मारे-मारे फिरते रहते हैं
हम अमरीका में रहते हैं
सात लाख का घर है
लेकिन माली के लिए पैसे नहीं हैं
मरे हुए सूखे पत्ते लॉन में फ़ड़फ़ड़ाते रहते हैं
हम अमरीका में रहते हैं
हज़ारों-लाखों की आय है
लेकिन मुफ़्त में खाना मिले
तो एक घंटे तक प्रवचन सुनते रहते हैं
हम अमरीका में रहते हैं
तीन हज़ार स्क्वेयर फ़ीट का घर है
और कोई अगर आ जाए
तो वे कहाँ रहेंगे यहीं सोचते रहते हैं
हम अमरीका में रहते हैं
एक कार-फ़ैक्स एकाउंट को
दस-दस लोग शेयर करते हैं
एक कॉस्टको कार्ड के लिए
दूसरा साथी ढूंढते रहते हैं
हम अमरीका में रहते हैं
कब किस कॉलिंग कार्ड पर
दस डॉलर का रिबेट मिलेगा
दु्निया भर से पूछते रहते हैं
हम अमरीका में रहते हैं
घर में ढेर सारी आईस-क्रीम है
लेकिन बास्किन राबिन्स
एक फ़्री स्कूप दे दे तो
नुक्कड़ तक हम लाईन लगाए रहते हैं
हम अमरीका में रहते हैं
हम रुपयों के लिए यहाँ आए थे
और जैसे-जैसे वे हमें मिलते जाते हैं
हम उनके लिए और उतावले बने रहते हैं
हम अमरीका में रहते हैं
सिएटल,
25 जुलाई 2008
=========================
गैस = gas, gasoline, petrol
तीन हज़ार स्क्वेयर फ़ीट = 3000 sq. ft.
कार-फ़ैक्स एकाउंट = car-fax account
शेयर = share
कॉस्टको कार्ड = costco card
कॉलिंग कार्ड = calling card
रिबेट = rebate
आईस-क्रीम = ice cream
बास्किन राबिन्स = Baskin Robbins
फ़्री स्कूप = free scoop
उतावले = impatient
Posted by Rahul Upadhyaya at 3:43 PM
आपका क्या कहना है??
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Labels: Anatomy of an NRI, August Read, nri, TG
क्या वो मिल पाएगी मुझको?
ज़ंज़ीरे जो हैं मगर दिखती नहीं
'गर तोड़ दूँ तो क्या वो मिल पाएगी मुझको?
दीवारें जो हैं मगर दिखती नहीं
'गर गिरा दूँ तो क्या वो देख पाएगी मुझको?
ये क्या हुआ और क्यों हुआ?
जो होना था वही क्यों हुआ?
ये सवाल जो कभी खत्म होते नहीं
'गर पूछ लूँ तो क्या वो कह पाएगी मुझको?
उसे प्रिय लिखूँ कि प्रियतम लिखूँ?
उसे जाँ लिखूँ कि दिलबर लिखूँ?
सोच सोच के जो ख़त लिखें नहीं
'गर लिख दूँ तो क्या वो पढ़ पाएगी मुझको?
ये दिल अब कहीं लगता ही नहीं
ये दिल मेरा अब मेरा ही नहीं
ऐसी ज़िंदगी जो मैं जी सकता नहीं
'गर छोड़ दूँ तो क्या वो भूल पाएगी मुझको?
सिएटल,
24 जुलाई 2008
Posted by Rahul Upadhyaya at 12:14 AM
आपका क्या कहना है??
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Wednesday, July 23, 2008
वो सामने नहीं
वो सामने नहीं पर साथ तो है
गोया ख़ुद नहीं पर अहसास तो है
जब मन चाहे मैं उनसे बात करूँ
जब दिल चाहे मैं उनसे प्यार करूँ
एक रिश्ता उनसे खास तो है
वो सामने नहीं …
दिन भर चलती है मेरे संग संग
शाम ढले तो संवरती है अंग अंग
एक वो ही मेरी मुमताज़ तो है
वो सामने नहीं …
एक दिन उतरेंगी वो ख़्वाबों से
और झूम के गिरेंगी मेरी बाँहों में
मुमकिन नहीं पर आस तो है
वो सामने नहीं …
सिएटल,
23 जुलाई 2008
=====================
मुमकिन = possible
आस = hope
Posted by Rahul Upadhyaya at 9:55 PM
आपका क्या कहना है??
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Labels: relationship, valentine
पहला प्यार
कभी सुबह मिले
कभी शाम मिले
घंटों-घंटों हम
दिन-रात मिले
न गले लगे, न हाथ छुआ
और दिल?
दिल कुछ इस तरह से चाक हुआ
कि तर्क़ दूँ मैं सारी कायनात
'गर फिर से वो लम्हात मिलें
कभी सुबह मिले …
कभी हाट में
कभी पेड़ तले
हम साथ हँसे
हम साथ चले
लब पर आ-आ के रूकती बात रही
और दिल?
दिल ने दिल से दिल की न बात कही
मैं रख दूँ खोल के दिल अपना
'गर कहने को फिर वो बात मिले
कभी सुबह मिले …
कभी धूप में
कभी छाँव में
हम घूम-घूम के
सारे गाँव में
हँसते-हँसाते थे चार सू
और दिल?
दिल में आज भी है उनकी आरज़ू
मैं मान लूँ हर एक बात को
'गर लौट के फिर वो आज मिलें
कभी सुबह मिले …
सिएटल,
23 जुलाई 2008
=====================
चाक = shred, torn into pieces
तर्क़ = leave
कायनात = universe
'गर = अगर, if
लम्हात = moments
हाट =market
लब =lips
चार सू = all around
आरज़ू = desire
Posted by Rahul Upadhyaya at 2:18 PM
आपका क्या कहना है??
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Tuesday, July 22, 2008
प्रेमी और पतिदेव
मैं हूँ तृप्त
तुम हो वंचित
मैं हूँ पूर्ण
तुम हो खंडित
मैं हूँ प्रसन्न
तुम हो कुंठित
मैं हूँ दृढ़
तुम हो कंपित
मैं हूँ अज्ञात
तुम हो इंगित
मैं हूँ स्मृति
तुम हो अंकित
मैं हूँ सहज
तुम हो दंभित
मैं हूँ आभास
तुम हो रंभित
मैं हूँ सर्व
तुम हो किंचित
मैं हूँ मुक्त
तुम हो संचित
कौन हो तुम?
कौन हूँ मैं?
मैं हूँ सखा
तुम हो वंदित
सिएटल,
22 जुलाई 2008
===================
प्रेम प्रतिद्वंदी = रक़ीब
तृप्त = satisfied
वंचित = deprived
कुंठित = frustrated
दृण = strong
कंपित = shaky
इंगित = indicated, named, pointed
स्मृति = memory
अंकित = written, marked
सहज = as is
दंभित = boastful
आभास = feeling
रंभित = loudly proclaiming
सर्व = all
किंचित = little
मुक्त = unchained
संचित = accumulated
सखा = friend
वंदित = worshipped
Posted by Rahul Upadhyaya at 2:37 PM
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Monday, July 21, 2008
कंडोम कांड
[http://hindibharat.blogspot.com/2008/07/blog-post_21.html]
समझ में नहीं आता कि कुछ लोग क्यों या तो बच्चों जैसी बेवकूफ़ी की बाते करते हैं या फिर बूढ़ों की तरह दकियानूसी?
अब परेशान है कंडोम के प्रचार को ले कर। हद हो गई। एक उम्र के बाद हर कोई इस के बारे में जान ही जाता है और समझ जाता है - किसी न किसी खुफ़िया तरीके से। आप धार्मिक है तो कह लीजिए किसी देवी शक्ति से। आज से 36 साल पहले की बात सुनिए, जब टी-वी घर घर में नहीं था और स्कूल-घर-परिवार वाले बच्चों को थिएटर में पहली पिक्चर दिखाने ले जाते थे तो कोई धार्मिक - जैसे कि सम्पूर्ण रामायण। और यह बात दिल्ली बम्बई की नहीं है। यह बात है मेरठ की। और मेरठ के एक प्राथमिक विद्यालय की। वहाँ एक दिन सर्दी के महीने में सुबह सुबह खेल के मैदान में हम पांचवी कक्षा के छात्र-छात्राओं को दिख गया कंडोम।
फिर क्या था। ज्ञान की जो सरिता बही कि बस पूछिए मत। रोज उसके बारे में बातें। फिर हमें निरोध के विज्ञापन के बारे में भी जिज्ञासा हुई। और हमारा शिक्षक कौन? स्कूल का दरबान। स्कूल में सिर्फ़ मैडम ही मैडम पढ़ाती थी। उनसे तो पूछने की हिम्मत हुई नहीं। यहीं एक पुरूष थे जिनसे बिना किसी भूमिका के पूछा जा सकता था। क्योंकि ये उस घटना से पूरी तरह वाकिफ़ थे।
तो तात्पर्य यह कि ये बाते रोकने से तो रुकती है नहीं।
ये एक फ़ैशन सा हो गया है आजकल। हर बुराई के लिए किसी न किसी को दोषी ठहराना। कभी मुसलमान तो कभी अंग्रेज़ तो कभी भूमंडलीकरण। आप रामायण खोल कर देख लें। महाभारत देख लीजिए। त्रेतायुग और द्वापरयुग में हर तरह का पाप और व्याभिचार मौजूद था। तब कहाँ थे आप के मुसलमान या अंग्रेज़ या भूमंडलीकरण।
मेरे हिसाब से आज का युग कहीं ज्यादा सभ्य है। आप अम्बानी परिवार की फ़ूट को देख कर कहते हैं - हाय घोर कलयुग आ गया। रामायण की सारी जड़ ही सौतेलेपन के व्यवहार पर है। उस से ज्यादा कलयुग और क्या होगा? आज हम गाँधी के गुज़र जाने के बाद उनका अनादर करते हैं, उन्हें कई बातों के लिए दोषी ठहराते हैं। राम को उनके जीते जी, खुद उनके घर वालो ने बाहर निकाल दिया। राम ने सीता को निकाल दिया। बच्चों की परवरिश तक नहीं की।
अव्वल बात तो यह कि आज अपहरण बहुत कम होते हैं, इसलिए ऐसा कल्पना करना मुश्किल है, लेकिन फ़र्ज करें कि आप की पत्त्नी का अपहरण हो गया है। आप तुरंत पुलिस में रिपोर्ट लिखवाएंगे। इधर-उधर भाग-दौड़ करेंगे। और फ़टाफ़ट काम होगा। लेकिन त्रेतायुग में? पुलिस तो है ही नहीं। इधर-उधर भटकिए। फिर मिले हनुमान, सुग्रीव। चलिए पत्त्नी को बाद में खोजेंगे, पहले आप का मामला सुलझाया जाए। बालि को मार दिया, मामला सुलझ गया। लेकिन अभी नहीं। अभी चतुर्मास है। हम अभी आराम करेंगे। फिर सोचेंगे। बाद में सुग्रीव भूल गए। फिर हनुमान गए। आए। बातें हुई। युद्ध हुआ। लक्ष्मण मूर्छित। राम रो रहे हैं। कहते हैं कि ये मैंने क्या किया? एक औरत के पीछे भाई को खो दिया!
देखिए कितना प्रेम है पति-पत्नी में! बाद में अग्नि-परीक्षा का किस्सा तो सर्वविदित है ही।
अब इस विज्ञापन को ही ले लीजिए। फ़िल्म 'सत्ते पे सत्ता' में कुछ कुछ ऐसा ही होता है जब अमिताभ की शादी होती है हेमा से रजिस्ट्रार के दफ़्तर में। अमिताभ को भी एक निरोध का पैकेट थमा दिया जाता है। यह फ़िल्म बच्चे-बच्चे ने देखी थी उस वक्त। एक उम्दा हास्य-प्रधान फ़िल्म के तौर पर। बॉबी, जूली के बारे में तो सुना कि बड़े-बुज़ुर्गों ने अपने घर की बेटियों को इन्हें देखने न दिया। सत्ते पे सत्ता के बारे में आज तक कोई आपत्ति सुनने में नहीं आई।
और आप ये क्यों सोच लेते हैं कि सिर्फ़ आप ही समाज के शुभचिंतक है? आपकी नज़र में तो जिन्होंने ये विज्ञापन बनाया है, अभिनय किया है और इसे दर्शाने का निर्णय लिया है, सब के सब गैर-ज़िम्मेदार हैं। मैं तो मानता हूँ कि अगर गौर से विश्लेषण किया जाए तो उन सब ने भी स्कूल में वे ही सब किताबें पढ़ी है जो आपने पढ़ी है। वहीं पाठ्यक्रम। थोड़ा तो आप उनका मान रखिए। वे भी आप ही की तरह इस समाज में रहते हैं। उनके भी परिवार हैं। ये किसी एक व्यक्ति-विशेष या तानाशाह का फ़रमान नहीं था कि ऐसा विज्ञापन बनाया जाए और दिखाया जाए।
आप पश्चिम से आई हुई कई बातें अपना लेते हैं। उनको अपनाने में अपना विकास समझते हैं। क्या ज़रुरत है उन्हें भी अपनाने की? रामराज्य में ये सब सुविधाएँ नहीं थी तो क्या जीवन दु:खद था? न फ़्रिज था, न टी-वी। न टेलिफ़ोन, न रेडियो।
मैं माँ के पेट में नौ महीने रहा। एक बार भी अल्ट्रा-साउंड नहीं हुआ। जबकि आज हर देश में बच्चे की देख-रेख के लिए आवश्यक समझा जाता है। भारत में भ्रूण हत्या के डर से ये खटाई में है। वरना हर कोई करवा रहा होता।
मेरा जन्म घर पर ही हुआ, एक छोटे से गाँव में, जहाँ न बिजली थी, न नल। और अच्छी खासी सेहत है। आज हर शहर में डिलिवरी किसी अस्पताल या क्लिनिक में होती है। क्यों?
जिसमें आपको अपना फ़ायदा दिखे वो ठीक। बाकी सब बेकार?
आप वास्तविकता से बच नहीं सकते। कब तक आँख मूंदें रहेंगे? देखिए, सीधी सी बात है। आप खाएंगे-पीएंगे तो मल तो साफ़ करना ही होगा। ज़िंदगी एक रेस्टोरेंट नहीं है कि खाए-पीए-खिसके।
सिएटल,
21 जुलाई 2008
Posted by Rahul Upadhyaya at 3:16 PM
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ऐसे कैसे कोई अपना धरम भूल जाए
ऐसे कैसे कोई अपना धरम भूल जाए
कि जहाँ मिल गया सहारा वहीं रूक जाए
कश्ती हो, समंदर में रहो, लहरों में बहो
ये कैसी जुस्तजू कि किनारा मिल जाए
न पा सकता है फल, न हाथ आते हैं फूल
जो डरता रहा कि कहीं काँटें न चुभ जाए
मोह-माया के बंधन अच्छे है या बुरे
सोचिए तब जब कोई अपना रूठ जाए
जो न सुनते हैं तुम्हे, न समझते हैं तुम्हे
अच्छा ही है कि उनका साथ छूट जाए
जब तक है 'राहुल', तब तक रहेगा ये
कैसे किसी के कहने से दिल टूट जाए
सिएटल,
21 जुलाई 2008
==================================
धरम = duty
जुस्तजू = desire
Sunday, July 20, 2008
हम कवि हैं
हम कवि हैं
एक से पेट नहीं भरता
तो दस गुट बना लेते हैं
कोई हमें पुरुस्कार न दे
तो हम अपने पुरुस्कार बना लेते हैं
जब देखो तब
नेता की
सरकार की
आलोचना करते हैं
लेकिन उन्हीं से अपनी संस्था के लिए
समर्थन की
सहारे की
आस रखते हैं
और अगर कोई नेता
अपने हाथ से पुरुस्कार प्रदान करे
तो फिर क्या
समझ लीजिए
सारी मेहनत सफ़ल हो गई
हर संस्था का दावा
कि वे निष्पक्ष
और निस्वार्थ रूप से कर रही हैं
साहित्य की सेवा
मजाल कि आप
कर दे इनकी आलोचना
तुरंत साध लेंगे तीर-बाण
करने आपकी भर्त्सना
अरे भाई
कौन इन्हे समझाए
कि कोई नहीं है दूध का धुला
न मैं न आप
चाहे सेठ हो साहूकार हो
चाहे वो भ्रष्ट सरकार हो
हर मेजबान के सामने
हमारे सर झुकेंगे
पारिश्रमिक लेते नहीं
हमारे हाथ थकेंगे
सिएटल,
20 जुलाई 2008
Posted by Rahul Upadhyaya at 7:43 PM
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Saturday, July 19, 2008
दिल पे आई आब ये देखो
दिल पे आई आब ये देखो
उनका हुआ जनाब ये देखो
हर तरफ़ हैं उनके ही जलवे
खिलता हुआ XXXX ये देखो
जो देखे वो वहीं रुक जाए
बर्फ़ हुई XXXX ये देखो
ऐसा हुस्न कि घायल कर दे
कट गया XXXX ये देखो
खोया दिल और पाया उनको
सीधा साधा XXXX ये देखो
देता जाऊँ और बढ़ता जाए
प्यार बड़ा XXXX ये देखो
कर के ख़ुद को उन के हवाले
'राहुल' बना XXXX ये देखो
=================
आब = चमक
=================================
ऐसी रचनाओं को मैं सभारंजनी रचना कहता हूँ - जिनमें हर दूसरी लाईन पंचलाईन होती है। जब ऐसी रचनाएँ सुनाई जाती हैं तो कोशिश यह की जाती है कि पहली लाईन दो तीन बारी दोहराई जाए ताकि श्रोताओं की जिज्ञासा बढ़े कि पंचलाईन में काफ़िया क्या होगा?
चूंकि आप सुनने की बजाए इसे पढ़ रहे हैं - मैं चाहता हूँ कि आप भी सभा के आनंद से वंचित न रहे। इसलिए सारे काफ़ियें छुपा दिये हैं। कल तक इंतज़ार करें और मैं सारे काफ़ियें उजागर कर दूंगा।
तब तक आप खुद अपने दिमागी घोड़े दौड़ाए और अंदाज़ा लगाए कि कौन से शब्द XXXX की जगह ठीक बैठेगें। आप अपने शब्द मुझे भेज सकते हैं, ई-मेल द्वारा (upadhyaya@yahoo.com) - या फिर यहाँ दे दे अपनी टिप्पणी द्वारा। एक बात ध्यान में रखें कि कुल 6 शब्द हैं। कोई भी शब्द दोहराया नहीं गया है।
=======================================
काफ़िया = दो शब्दों का ऐसा रूप-साम्य जिसमें अंतिम मात्राएँ और वर्ण एक ही होते हैं। जैसे-कोड़ा, घोड़ा और तोड़ा,या गोटी चोटी और रोटी का काफिया मिलता है।
=======================================
आब-जनाब के काफ़िए:
आदाब, आफ़ताब, कबाब, ख़्वाब, खराब, खिज़ाब, गुलाब, चनाब, जवाब, जुर्राब, तलाब, ताब, दाब, नक़ाब, नवाब, नायाब, बेहिसाब, (भाई) साब, महताब, रूआब, लाजवाब, शराब, शादाब, सैलाब, हिज़ाब, हिसाब
मैं आब, जनाब के लिए बस इतने ही सोच सका। हो सके तो आप कुछ अपनी तरफ़ से जोड़ें। क्या कोई शब्दकोष, थेसारस जैसी कोई पुस्तक या वेब-साईट है, जहाँ इस तरह की सूची उपलब्ध हो?
Posted by Rahul Upadhyaya at 4:24 PM
आपका क्या कहना है??
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Labels: CrowdPleaser
फूलों के रंग से
गंदी कलम से
मुझको लिखी रोज़ पाती
कैसे बताऊँ,
किस किस तरह से
पल पल मुझे ये सताती
इसके ही डर से
मैं लॉगिन न करता
इसके ही भय से मैं कांपू
इसकी वजह से
कतराया सब से
जैसे कि समंदर में टापू
हाँ, गुगल, याहू, एम-एस-एन, ए-ओ-एल सब के सब बेकार
बदलना पड़ा ऐकाऊंट हमें कई कई बार
हाँ, इतनी गंदी इतनी अश्लील होती थी ई-मेल्स की बौछार
बदलना पड़ा ऐकाऊंट हमें कई कई बार
एम-पी-3 की फ़ाईल्स,
फ़्लिकर के फोटों,
यू-ट्यूब के विडियो
भर भर के हरदम
हर एक ई-मेल में,
भेजे हज़ारों मुझको
सुबह का वक़्त हो
शाम का वक़्त हो
संडे हो या हो मंडे
याद ये आए,
बदबू ले आए
जैसे सड़े हो अंडे
हाँ, गुगल, याहू, एम-एस-एन, ए-ओ-एल सब के सब बेकार
बदलना पड़ा ऐकाऊंट हमें कई कई बार
इतनी गंदी इतनी अश्लील होती थी ई-मेल्स की बौछार
बदलना पड़ा ऐकाऊंट हमें कई कई बार
पूरब हो पश्चिम,
उत्तर हो दक्षिण,
हर जगह गंदी ई-मेल सताए
जितने ही ऐकाऊंट
मैं क्यों न बदलू,
ये पीछे पीछे आ ही जाए
ट्रेश में डाला,
स्पैम में फ़ेंका,
कई तरह के फ़िल्टर्स लगाए
हिम्मत इसकी,
लेकिन कि ये
सब को मात देती ही जाए
हाँ, गुगल, याहू, एम-एस-एन, ए-ओ-एल सब के सब बेकार
बदलना पड़ा ऐकाऊंट हमें कई कई बार
इतनी गंदी इतनी अश्लील होती थी ई-मेल्स की बौछार
बदलना पड़ा ऐकाऊंट हमें कई कई बार
सिएटल,
19 जुलाई 2008
(नीरज से क्षमायाचना सहित)
=======================
लॉगिन = login
टापू =island
गुगल =google
याहू = yahoo
एम-एस-एन = msn
ए-ओ-एल = aol
ऐकाऊंट =account
ई-मेल्स =emails
एम-पी-3 की फ़ाईल्स = mp3 files
फ़्लिकर = flickr
यू-ट्यूब के विडियो = YouTube videos
संडे = Sunday
मंडे = Monday
ट्रैश = trash folder
स्पैम = spam folder
फ़िल्टर्स = filters
Posted by Rahul Upadhyaya at 3:44 PM
आपका क्या कहना है??
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Labels: digital age, Neeraj, parodies
Thursday, July 17, 2008
जो करना चाहता हूँ वो कर नहीं सकता
जो करना चाहता हूँ वो कर नहीं सकता
ऐसी ज़िंदगी मैं अब और सह नहीं सकता
जब तक बिखरेगा नहीं ये निखरेगा नहीं
सिमट के दायरे में जीवन फल नहीं सकता
अपनी सांसो से इसे सींचा है मैंने
मेरे जीते जी जीवन मर नहीं सकता
'गर सब है माया और सब है क्षणभंगुर
तो दामन का दाग़ क्यों मिट नहीं सकता
प्यार से परहेज़ और पेट में पाप
कुछ दिन से ज्यादा रह नहीं सकता
जब से लत पड़ गई लता बन गया
अब उस के बिना मैं चल नहीं सकता
रिश्तों के बंधन में तन रह सकता है पाक
लेकिन मन किसी बंधन में बंध नहीं सकता
न तुम न 'राहुल' न कोई माई का लाल
जब तक झूठ न बोले वो बच नहीं सकता
सिएटल,
17 जुलाई 2008
============================
दायरे = दायरा, circle
'गर = अगर, if
क्षणभंगुर = short-lived
दामन का दाग़ = कलंक, stigma
लत = addiction
लता = vine, a climbing plant
पाक = chaste
Posted by Rahul Upadhyaya at 9:19 PM
आपका क्या कहना है??
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Labels: intense
हमसे का भूल हुई
जो हमें यातनाएँ मिली
अब तो चारों ही तरफ़
सस्ती कविताएँ मिली
फिर नज़र भी न पड़े
हमने बस इतना चाहा
ब्लॉग से दूर रहे,
ग्रुप से बचना चाहा
इसका फ़ायदा न हुआ
ई-मेल्स से रचनाएँ मिली
हम पे इलज़ाम ये है
बोर को क्यूँ बोर कहा
कविता को बकवास कहा
क्यूँ न कुछ और कहा
उलटा अनपढ़ गँवार
जैसी हमें उपमाएँ मिली
अब तो तुलसी कबीर सा
कोई कवि ही नहीं
जो सच बोल सके
ऐसा कोई भी नहीं
हर महफ़िल में हर तरफ़
झूठी तारीफ़ों की सदाएँ मिली
हमें आप माफ़ करें
आप अपना ब्लॉग लिखें
किसी को ज़ीरो लिखें
किसी को गॉड लिखें
ख़ुदा ही आपकी खैर करे
जो आपको ऐसी भावनाएँ मिली
गलती से हमें अगर
कहीं ख़ुदा दिख जाए
तो पूछूंगा आप भला
ये सब कैसे लिख पाए
जबकि आपको हमारी
लाखों-करोड़ों बद-दुआएँ मिली
सिएटल,
17 जुलाई 2008
(मजरूह से क्षमायाचना सहित)
==================
ब्लॉग = blog
ग्रुप =group
ई-मेल्स = emails
बोर = bore, ऊबाऊ
सदाएँ = गूँज, प्रतिध्वनि, आवाज
ज़ीरो =zero
गॉड =God
Posted by Rahul Upadhyaya at 1:13 PM
आपका क्या कहना है??
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आऊंगी जब मैं
तुम आदमी हो कि पजामा हो?
भला मर्द भी कभी रोता है?
और रोता है तो क्या
किसी को रोते हुए दिखता है?
और दिखता है तो क्या
ज़माने भर को बताने के लिए
भला कोई ब्लॉग पे भी लिखता है?
चलो उठो
पौधों को पानी दो
जालों को साफ़ करो
चटनी खराब हो गई है
तो उसे फ़ेंक दो
और दूसरा कुछ इंतजाम करो
बस थोड़े ही दिन की तो बात है
मैं आती हूँ
तुम और तुम्हारी कविता
दोनो की ख़बर लेने
करना है तो कुछ काम करो
जग में रह कर नाम करो
कुछ मेहनत करो
कुछ कसरत करो
और कविता लिखना
कुछ कम करो
सिएटल,
17 जुलाई 2008
Posted by Rahul Upadhyaya at 12:50 PM
आपका क्या कहना है??
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Wednesday, July 16, 2008
आओगी जब तुम
तुम जो ढेर सारी चटनी बना कर बोतल में बंद कर गई थी
उसमें फ़फ़ूंद पड़ गई है
सोफ़े के पीछे कमरे के कोने में जाले हो गए हैं
एक केले का पौधा कल लड़खड़ा कर गिर पड़ा
उठाता हूँ तो उठता ही नहीं
दीवार से टिकाया पर वो टिकता ही नहीं
बार बार फ़िसलता रहता है
अब मैंने भी छोड़ दिया है
कहाँ तक कोई किसी की मनुहार करे
अभी तुम्हे गए हुए सिर्फ़ 18 ही दिन हुए हैं
और देखो कितना कुछ बदल गया है
मैं क्या था
और क्या हो गया
न कोई पूछता है
न किसी को कुछ कहने की ज़रुरत है
दिन में घर पर देख कर
समझ जाते है लोग
एक छींक आती थी मुझे
और जान न पहचान
सब आशीर्वाद देने दौड़ते थे
आज आंसू बहते हैं
तो सब असमंजस में पड़ जाते हैं
सोचते ही रह जाते हैं
किसी को आंसू पोछते हुए कभी देखा होता
तो शायद वो भी पोछते
अभी तुम्हारे आने में 36 दिन बाकी हैं
घबराओ नहीं
जो होगा
अच्छा ही होगा
याद है मैं कहता था कि
मेरे हाथों की लकीरों में अगर मुकद्दर होता
तो मैं अपने ही हाथों के हुनर से बेख़बर होता
सिएटल,
16 जुलाई 2008
Posted by Rahul Upadhyaya at 10:41 AM
आपका क्या कहना है??
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Tuesday, July 15, 2008
मौत
मैं गिन रहा हूँ
जीवन की अंतिम घड़ियाँ
लेकिन रुको
अभी से हाय-तौबा न मचाओ
न लोगो की भीड़ इकट्ठा करों
न ही मेरे परिवार के लिए चंदा इकट्ठा करों
मुझे गिनती का शौक है
और मैं लाखों-करोड़ों तक गिन सकता हूँ
तो अभी थोड़ा रुकों
अभी वक़्त है मेरे उठ जाने में
अब आ ही गए हो
तो सुनते जाओ
कितने दु:ख है इस ज़माने में
पिछले हफ़्ते
राजस्थान में
एक सोलह साल की बच्ची
10 वीं क्लास में
तीसरी बार फ़ेल हो कर
पंखे से लटक कर मर गई
यहाँ अगर ये होता
तो बहुत हंगामा होता
सारे स्कूल में काउंसलर्स
बच्चों को ढांढस बंधाते
और माँ-बाप बच्चों के सर हाथ फेरते
वहाँ
किसी को फ़र्क नहीं पड़ता है
जो फ़ेल हो जाता है
वो मर जाता है
और जो फ़र्स्ट क्लास पाता है
उसका परिवार
मिठाई खाता है
खिलाता है
और वतनफ़रोशी की तमन्ना लिए
यहाँ आ जाता है
सुना था कि पहले
औरतें मरती थी
लुटेरों के डर से
आक्रमण के डर से
अपनी इज़्ज़त आबरू के डर से
लेकिन ये क्यो मरी?
उन लुटेरों के नाम होते थे
आक्रमणकारियों की पहचान होती थी
आज के लुटेरे बेनाम है
लेकिन
हर पल विराजमान है
हमारे दिल और दिमाग में
डिग्री
नौकरी
पैसा
ये ही हैं सब कुछ
ये ही हैं हमारे ईश्वर
ये ही हैं लुटेरे
देश तरक्की कर रहा है
क्यूंकि इसका उत्पादन प्रतिवर्ष दस प्रतिशत बढ़ रहा है
और भारत माँ के पूत घर वापस आ रहे हैं
और दूसरी तरफ़
दिन में पांच-पांच घंटे बिजली गायब रहती है
धर्म के नाम पर दंगे होते हैं
तीर्थयात्रा के नाम पर हड़ताल होती है
करोड़ों मे सांसद बिकते हैं
और इस पार?
मैं देख रहा हूँ
एक के बाद एक
आलिशान मंदिर बनते हुए
मैं देख रहा हूँ
एक के बाद एक
आलिशान होटलों में
स्वामी उपदेश देते हुए
मैं देख रहा हूँ
एक के बाद एक
एन-जी-ओ झोली फ़ैलाए हुए
एन-जी-ओ को सबसे बड़ा दु:ख
इस बात का है
कि देश में लोग
सिर्फ़ एक डॉलर में
एक दिन का गुज़ारा कैसे कर लेते हैं?
उनकी इच्छा है कि
कम से कम
दस डॉलर तो
खर्च होने ही चाहिए
वरना कोक-पेप्सी-चिप्स-चुईंग-गम आदि
कौन खरीदेंगा?
मैं गिन रहा हूँ
जीवन की अंतिम घड़ियाँ
लेकिन रुको
अभी से हाय-तौबा न मचाओ
सिएटल,
15 जुलाई 2008
==========================
10 वीं क्लास = 10th grade
फ़ेल = fail
काउंसलर्स = counselors
फ़र्स्ट = first
वतनफ़रोशी = वतन बेचना
एन-जी-ओ = NGO
Posted by Rahul Upadhyaya at 2:57 AM
आपका क्या कहना है??
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Labels: intense
Monday, July 14, 2008
चना, चना, चना, चना
चना, चना, चना, चना
जिधर देखो उधर चना
करने लगा विवेचना
तो पाया कि चना है सर्वव्यापी
और मुश्किल है इससे बचना
मान लीजिए
आप गाना सुन रहे हैं
तो गाना गा रही हैं सुलोचना
आप पूजा कर रहे हैं
तो संतोषी माँ को चढ़ा रहे हैं गुड़-चना
आप शाकाहारी हैं
तो सेहत के लिए खा रहे हैं आलू-चना
आप पैसा कमा रहे हैं
तो सोच रहे होंगे कि कैसे उसे कम खर्चना?
मानसून हुआ मेहरबान
तो मग्गों से एक एक कर के पानी उलीचना
किसी से नाराज़गी हो
तो गुस्से में दांत भींचना
और लड़ाई झगड़ा हो
तो हाथापाई में मुंह नोचना
आप कवि है तो आप का काम होगा
रोज लिखना नई नई रचना
दु:ख-दर्द-आंसू से उसे सींचना
माईक मिलते ही माईक दबोचना
माईक पर घंटों तक उसे बांचना
किताब में छपाकर उसे बेचना
समीक्षकों के आगे पीछे नाचना
प्रकाशकों से अपना पारिश्रमिक खींचना
दू्सरे कवियों की हमेशा करना आलोचना
इस रचना में शामिल है
दुनिया का एक एक चना
लेकिन ये भी हो सकता है कि
मैंने बस शुरु किया हो
सतह को खरोंचना
अगर कुछ छूट गए हो
तो जल्दी मुझे दे सूचना
(एक को तो छोड़ दिया है जान-बूझ कर
देखें कौन बताता है उसे सबसे पहले बूझ कर)
सिएटल,
14 जुलाई 2008
Posted by Rahul Upadhyaya at 12:28 AM
आपका क्या कहना है??
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Labels: fun, world of poetry
Saturday, July 12, 2008
हम तुमसे जुदा हो के
मस्त रहते हैं सो सो के
लड़कियाँ बड़ी फ़्रेंडली है
दिल खोल के हँसती है
हर रोज नई तितली
मेरे साथ फ़ुदकती है
लेती न कोई वादें
देती न कोई धोखें
बर्तन नहीं फूटते हैं
ताने नहीं सुनते हैं
जो मन करें हम वो
गाने सभी सुनते हैं
न कोई हमें रोके
न कोई हमें टोके
डरता था कभी ईश्वर
हम पर न फ़िदा होंगे
मालूम न था हम यूँ
इस तरह जुदा होंगे
किस्मत ने दिए मौके
रहे हम दो से एक हो के
सिएटल,
12 जुलाई 2008
(असद भोपाली से क्षमायाचना सहित)
=================================
फ़्रेंडली = friendly
Posted by Rahul Upadhyaya at 11:15 PM
आपका क्या कहना है??
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Labels: Asad Bhopali, parodies, relationship
आशिक़ का जनाज़ा
आशिक और दिवंगत?
ये कैसे हो सकता है
ये कतई नहीं है तर्कसंगत
कहीं से ये आवाज़ आई
सुन कर हमें क़रार आया
कि आखिर किसी को तो
आशिक़ पर तरस आया
श्रद्धा से हुए हम नतमस्तक
कि चलो कोई तो निकला शुभचिंतक
लेकिन वहाँ मामला कुछ और था
मात्र अर्थहीन शब्दों का शोर था
जम कर छिड़ गया एक रण था
क्यूंकि संकट से घिर गया व्याकरण था
आशिक और दिवंगत?
ये कैसे हो सकता है
ये कतई नहीं है तर्कसंगत
आशिक़ बर्बाद हो सकता है
नष्ट नहीं
आशिक़ को ग़म हो सकता है
कष्ट नहीं
आशिक की कब्र खुदेगी
सजेगी उसकी चिता नहीं
आशिक़ को वालिद विदा करेगे
उसके पिता नहीं
ये ज़माना है बहुत स्वार्थी
इसे नहीं किसी से हमदर्दी
आशिक़ है तो ज़नाज़ा ही निकलेगा
मज़ाल है कि उठ जाए उसकी अर्थी
लेकिन थोड़ी देर रुके
जनाज़ा में कहाँ ज लगेगा और कहाँ ज़
अभी इस पर विचार कर रहे हैं
हमारे माननीय जज
सिएटल,
12 जुलाई 2008
Posted by Rahul Upadhyaya at 2:21 PM
आपका क्या कहना है??
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Labels: world of poetry
ज़िंदगी हो multiple choice
ज़िंदगी हो पर प्यार न हो
जैसे जीत हो पर हार न हो
जैसे धन हो पर अपार न हो
जैसे फूल हो पर बहार न हो
जैसे पालकी हो पर कहार न हो
जैसे नौकरी हो पर पगार न हो
जैसे गैस हो पर कार न हो
ज़िंदगी हो और ज़ज़बात न हो
जैसे दीप हो और बात न हो
जैसे शब्द हो और बात न हो
जैसे बाजा हो और बारात न हो
जैसे अंधेरा हो और रात न हो
जैसे कलम हो और दवात न हो
जैसे बच्चे हो और उत्पात न हो
ज़िंदगी हो और सुख न हो
जैसे एक्ज़ाम हो और बुक न हो
जैसे टिफिन हो और भूख न हो
जैसे किचन हो और कुक न हो
ज़िंदगी हो और कोई संग न हो
जैसे रुप हो पर रंग न हो
जैसे रूत हो पर पतंग न हो
जैसे होली हो पर हुड़दंग न हो
जैसे लस्सी हो पर भंग न हो
जैसे रात हो पर पलंग न हो
जैसे गीत हो पर तरंग न हो
सिएटल,
12 जुलाई 2008
Posted by Rahul Upadhyaya at 12:37 PM
आपका क्या कहना है??
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Labels: CrowdPleaser, misc
Thursday, July 10, 2008
मदद
तुमने बताया मर्ज़
मैंने तुम्हे दवा दी
तो कौन सा गुनाह किया?
लेकिन तुमने?
दवा थी कड़वी
इसका मुझे इल्जाम दिया
तुमने शिकायत की
कि ज़िंदगी बेरंग सी है
और मैंने उसमें रंग भरे
लेकिन तुम?
तुम खुद ही रंग बदल गई
तुम थी मझधार में
मैंने तुम्हे किनारा दिया
लेकिन तुमने?
तुमने किनारे पर आते ही
मुझसे किनारा किया
तुमने मांगी मदद
मैंने अपना हाथ बढ़ाया
तो कौन सा गुनाह किया?
लेकिन तुमने?
तुमने इसे
धृष्टता का नाम दिया
अच्छा बाबा
अब हाथ जोड़ता हूँ
मानता हूँ कि
मैं ही पागल था
कि जब तुम बेसहारा थी
मैंने अपना कंधा दिया
लेकिन तुमने?
मेरे दूसरे कंधे पर कोई और था
इसका मुझे इल्ज़ाम दिया
प्यार एक से ही होता है
ये तो पता था
लेकिन मदद भी एक की ही की जा सकती है
ये अब समझ में आया
सिएटल,
10 जुलाई 2008
Posted by Rahul Upadhyaya at 4:43 PM
आपका क्या कहना है??
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Labels: misc, relationship
Wednesday, July 9, 2008
कहीं एक मासूम नाज़ुक सी लड़की
बहुत खूबसूरत मगर सांवली सी
चलो चेक करूँ ई-मेल आती ही होगी
कह कह के लॉगिन करती तो होगी
कोई कॉल शायद मिस हो गया हो
सेल फोन बार बार देखती तो होगी
और फिर फोन की बजते ही घंटी
उसी फोन से डर डर जाती तो होगी
चलो पिंग करूँ जी में आता तो होगा
मगर उंगलियां कँप-कँपाती तो होंगी
माऊस हाथ से छूट जाता तो होगा
उमंगें माऊस फिर उठाती तो होंगी
मेरे नाम खास ईमोटिकॉन सोचकर
वो दांतों में उँगली दबाती तो होगी
चलो सर्च करुँ जी में आता तो होगा
कभी याहू तो कभी गुगल पर
मेरा नाम बदल बदल कर
मुझे बार बार ढूंढती तो होगी
मेरे ब्लॉग पर ख़ुद को कविता में पाकर
बदन धीमे धीमे सुलगता तो होगा
कहीं के कहीं पांव पड़ते तो होंगे
दुपट्टा ज़मीं पर लटकता तो होगा
कभी सुबह को शाम कहती तो होगी
कभी रात को दिन बताती तो होगी
सिएटल,
9 जुलाई 2008
(कमाल अमरोही से क्षमायाचना सहित)
==============================
चेक = check
ई-मेल = email
लॉगिन = login
कॉल = call
मिस = miss
सेल फोन = cell phone
पिंग = ping
माऊस = mouse
ईमोटिकॉन = emoticon
सर्च = search
याहू = Yahoo
गुगल = Google
ब्लॉग = blog
Posted by Rahul Upadhyaya at 12:21 PM
आपका क्या कहना है??
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Labels: Kamal Amrohi, parodies, TG, valentine
Tuesday, July 8, 2008
मेरा सच और मेरी सोच
थोड़ी हंसी, थोड़ा क्रोश
थोड़े गुण, थोड़े दोष
थोड़ा शोक, थोड़ी मौज
थोड़ी मदद, थोड़ा बोझ
थोड़ी एंठन, थोड़ी लोच
थोड़ा मलहम, थोड़ी खरोच
ये सब मुझे देते हैं लोग
ये सब मुझे मिलते हैं रोज
इन सब को
मिलाजुला कर
मैं लिख लेता हूँ रोज
और कोई नहीं है मेरा कोच
बस मेरा सच और मेरी सोच
सिएटल,
8 जुलाई 2008
======================
कोच = coach
Posted by Rahul Upadhyaya at 7:26 PM
आपका क्या कहना है??
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Labels: bio, intense, Why do I write?, world of poetry
मैं तुम्हे क्यों चाहता हूँ
आए दिन कोई न कोई मुझसे पूछ ही लेता है
कि मेरा दिल अब भी तुम्हे चाहता क्यूँ है?
मैं जवाब में पूछता हूँ
कि सावन के महीने में मोर नाचता क्यूँ है?
कि चकोर चाँद को ताकता क्यूँ है?
कि चाँद का धरती से वास्ता क्यूँ है?
कि चरवाहा भेड़-बकरी हाँकता क्यूँ है?
वो कहता है कि
आप भी क़माल करते हैं
घुमा फिरा कर बात करते हैं
आज के आधुनिक युग में
चाँद-चकोर-मोर-चरवाहों की बात करते हैं
कोई नई उपमाएँ दीजिए
कुछ नए मुहावरे जोड़िए
तो मैं पूछता हूँ
कि बाप जवान बेटी को ब्याहता क्यूँ है?
कि बाप बेटों में जायदाद बाँटता क्यूँ है?
कि सुबह सुबह ज़माना अख़बार बाँचता क्यूँ है?
कि जब होती है रात तो बूढ़ा खांसता क्यूँ है?
कि जब बंदा हो इटालियन तो खाता पास्ता क्यूँ है?
कि जब बॉस हो नाराज़ तो आदमी काँपता क्यूँ है?
और अगर अब भी समझ में न आए
तो मैं हाथ जोड़ता हूँ कि बाबा माफ़ करो
खाली-पीली मेरा दिमाग चाटता क्यूँ है?
नाक में दम कर रखा है इन्होनें
हमारी मरजी हम जो चाहे करे
आप से मतलब?
हम है
हमारी बोतल है
हम पिए ना पिए
आप अपना रास्ता नापिए
सिएटल,
8 जुलाई 2008
Posted by Rahul Upadhyaya at 2:00 PM
आपका क्या कहना है??
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Labels: valentine
कैपरी
जिधर देखो उधर कैपरी
इधर कैपरी उधर कैपरी
कैपरी है
आज की पेपर-थिन परी का परिधान
और साड़ी?
साड़ी की तो मिल गई मटियामेट
जिसे पहनती थी सारी स्टेट
हो गई उसकी ऐसी सॉरी स्टेट
कि पहन रही हैं उसे बस पेपर-वेट
सिएटल,
8 जुलाई 2008
====================
कैपरी = capri
पेपर-थिन = paper-thin
स्टेट = state
सॉरी = sorry
पेपर-वेट = paper-weight
Monday, July 7, 2008
इश्क़ की बीमारी
दवात से पीती तो होती क़लम
ओक से पीती तो होती गँवार
उसके होंठों से पी कर
हुई तू इश्क़ में बीमार
उसके बातों की खुशबू
उसके वादों का ख़ुमार
बढ़ाता जाए
तेरे इश्क़ का बुखार
बेवफ़ा है तू
और बेवफ़ा है वो
चलो एक दूसरे से
तो है प्यार बेशुमार
न मीरा ये समझा
न राधा ये समझा
ये ज़माना क्या समझेगा
तेरा बावला व्यवहार
कि टंकी भले ही
लबालब भरी हो
दिल को लुभाए
बारिश की फ़ुहार
'राहुल' की दुआएं है
हमेशा तेरे साथ
जिसे तू चाहे
तू कर उससे प्यार
सिएटल,
7 जुलाई 2008
================
दवात = ink pot
ओक = अंजुली भरना
Posted by Rahul Upadhyaya at 6:50 PM
आपका क्या कहना है??
सबसे पहली टिप्पणी आप दें!
Labels: valentine
कभी कभी दुआओं का जवाब आता है
कभी कभी दुआओं का जवाब आता है
और कुछ इस तरह कि बेहिसाब आता है
यूँ तो प्यासा ही जाता है अक्सर सागर के पास
मगर कभी कभी सागर बन कर सैलाब आता है
ढूंढते रहते हैं जो फ़ुरसत के रात दिन
हो जाते हैं पस्त जब पर्चा रंग-ए-गुलाब आता है
दो दिलों के बीच पर्दा बड़ी आफ़त है
तौबा तौबा जब माशूक बेनक़ाब आता है
पराए भी अपनों की तरह पेश आते हैं 'राहुल'
वक़्त कभी कभी ऐसा भी खराब आता है
सेन फ़्रंसिस्को,
2003
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सैलाब = floods
पर्चा रंग-ए-गुलाब= pink slip, notice of dismissal from one's job
Posted by Rahul Upadhyaya at 6:02 PM
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Labels: CrowdPleaser, TG
Wednesday, July 2, 2008
हाय और बाय
जब जब उससे मैं मिलता था
फूलों की तरह मैं खिलता था
मन से मन की बात होती थी
दिल को मेरे सूकूं मिलता था
फिर मेल-जोल सब छुट गया
मैं काम-काज में जुट गया
मैं हूँ यहाँ और वो है वहाँ
मिलते-जुलते हम कैसे कहाँ?
इंटरनेट मिली कमाल की चीज
इसने बोए फिर से प्रेम के बीज
मेसेंजर का जब मिला सहारा
बिछड़े हुए मिल गए दोबारा
मैसेंजर पर छाई अंग्रेज़ी मैया
और हम ठहरे हिंदी भाषी भैया
खूब नाच नचाया इसने
खूब नाचे हम ता-ता-थैया
मैं लिखूँ कुछ, वो कुछ और पढ़े
लफ़ड़े हुए फिर बड़े-बड़े
मैं हर्ष लिखूँ तो वो हार्श समझे
दम लिखूँ तो डैम
चित लिखूँ तो चिट समझे
हित लिखूँ तो हिट
वन लिखूँ तो वैन समझे
मन लिखूँ तो मैन
पंत लिखूँ तो पैंट समझे
बंद लिखूँ तो बैंड
लग लिखूँ तो लैग समझे
हम लिखूँ तो हैम
तुने लिखूँ तो ट्यून समझे
सुन लिखूँ तो सन
लब लिखूँ तो लैब समझे
मद लिखूँ तो मैड
हद लिखूँ तो हैड समझे
पद लिखूँ तो पैड
लोग लिखूँ तो लॉग समझे
जोग लिखूँ तो जॉग
पर लिखूँ तो पार समझे
पैर लिखूँ तो पेयर
खूब नाच नचाया इसने
खूब नाचे हम ता-ता-थैया
जैसे ही यूनिकोड हाथ में आया
छोड़-छाड़ कर हम भागे भैया
जान छुटी और लाखों पाए
रोमन छोड़ देवनागरी पे आए
दिनकर-निराला को याद किया
घंटो तक हमारी बात हुई
दिल से दिल तक बात पहुँची
शेरो-शायरी की बरसात हुई
अंग्रेज़ी के सारे जुमले छोड़ दिए
और हिंदी के मुहावरे जोड़ लिए
जब लिखना होता है - टॉक टू यू लेटर
मैं लिख देता हूँ - शेष फिर
जब लिखना होता है - बी राईट बैक
मैं लिख देता हूँ - एक मिनट
लेकिन पूरी बात यहाँ कौन लिखता है
जिसे देखो वो शार्ट-फ़ॉर्म लिखता हैं
जब लिखना होता है - टी-टी-वाय-एल
मैं लिख देता हूँ - शे-फि
जब लिखना होता है - बी-आर-बी
मैं लिख देता हूँ - ए-मि
पर एक समस्या विकट खड़ी है
जिस पर मुझे शर्म बड़ी है
मिलते वक़्त वो लिखे हाय
और जाते वक़्त वो लिखे बाय
क्या जवाब दू और क्या लिखूँ
सोच सोच न मिले उपाय
नमस्ते नमस्कार ठीक नहीं है
इनमें प्रेम-प्यार की छाप नहीं है
राम-राम का रिवाज नहीं है
और ख़ुदा-हाफ़िज़ का तो सवाल ही नहीं है
पत्र होता तो 'प्रिय', और 'तुम्हारा'
इन दोनों से चल जाता गुज़ारा
सोच सोच कर मैं हार गया
और अखिरकार मैंने मान लिया
कि हाय और बाय का विकल्प नहीं है
ये पूर्ण सत्य है कोई गल्प नहीं है
अगर आप जानते हैं तो सामने आए
टिप्पणी लिख कर मुझे बताए
सिएटल,
2 जुलाई 2008
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हाय = hi
बाय = bye
सूकूं = शांति
मेसेंजर = Instant Messenger
हार्श = harsh
डैम = dam
चिट = chit
हिट = hit
वैन = van
मैन = man
पैंट = pant
बैंड = band
लैग = lag
हैम =ham
ट्यून = tune
सन = sun
लैब = lab
मैड = mad
हैड = had
पैड = pad
लॉग = log
जॉग = jog
पार = par
पेयर = pair
टॉक टू यू लेटर = talk to you later
बी राईट बैक = be right back
टी-टी-वाय-एल = ttyl
बी-आर-बी = brb
विकल्प = alternative
गल्प = story
ई-मेल = email
Posted by Rahul Upadhyaya at 3:25 PM
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Labels: digital age, fun, hinglish
मन से
मन से तुम्हे चाहा था मगर
मन से तुम्हे मांगा नहीं था
ताकत पर अपनी भरोसा नहीं था
खुली किताब अगर होती ज़िंदगी
शब्द सारे मिटा देता उसमें
रखता बस एक तुम्हारा नाम
होती तुम और होता बस मैं
तुम्हारे बस में
मन से तुम्हे चाहा था मगर …
सिएटल,
2 जुलाई 2008
Posted by Rahul Upadhyaya at 3:05 PM
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