यही वो गुफ़ा थी
जिसमें मरी दुआ थी
कहते जिसे डायना थे
लगती वो आईना थी
घर नहीं, महल था वो
उसके लिए पिंजरा था वो
थी तो वो बुलबुल मगर
ख़ुद की आवाज़ पे कोई हक़ ना था
थी रजवाड़े-रियासत की दौलत
थी आसन्न रानी की बहू
थी भावी कर्णधारों की पत्नी-माँ
तज दिया सब कुछ मगर
ज़िन्दगी बर्बाद हुई
हीरे-जवाहरातों के शोर में
मौत भी आई तो कैसे
दनदनाती दौड़ में
क्या दुआ, क्या प्रार्थना
क्या नहीं था उसके पक्ष में
गाँव की गंवार की माफ़िक़
मर गई थी वो ब्याह के
नारी की ही ज़िन्दगी
क्यों अक्सर बिगड़ जाती है
ब्याह से?
क्यों घर से बेघर होना ही
लिखा है उसके भाग्य में?
क्यूँ नहीं जाती है वो रोज़
घर से निकल के काम पे?
क्यूँ बे-वेतन के काम प्राथमिक
और बाक़ी सब हैं ताक पे?
राहुल उपाध्याय । 26 दिसम्बर 2023 । अम्सटर्डम
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