ये खाते, ये पीते,
ये सोते जवां
हैं खुश-खुश यहाँ
हैं इससे भी आगे
जहां और प्यारे
न इनको पता
ये क्या बात है गाँव की सादगी में
के खुश हो रहे हैं हर हाल ही में
ये बेख़ौफ़ नज़रें, ये उन्मुक्त राहें
हमें कह रही हैं कहाँ दुख बता
ज़माने के झंझट इन्हें न सताए
हो बात कोई ये मिल के मिटाए
ये घर छोड़ भागे, कहीं और जाए
ये इनका नहीं है, नहीं क़ायदा
हाँ दो वक्त की रोटी हर कोई पाए
इससे ज़्यादा क्यूँ और कमाए
न सम्भलेगा हमसे, न बैंकों का भय है
धन से रहे दूर, दूर सदा
राहुल उपाध्याय । 3 दिसम्बर 2023 । सिंगापुर
2 comments:
वाह
आवश्यकताएँ जितनी कम, उतना ही आनन्द । गाँव में खुशी और सन्तुष्टि इसलिए कि लोग थोड़े में सन्तुष्ट होते हैं। बहुत अच्छी कविता
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