दो शून्य
या एक शून्य?
जो भी हो
बस रहे पुण्य
पाप न आपके साथ रहे
खुशियों की बरसात रहे
और हाँ
इस वर्ष आप कुछ खास करें
हिंदी लिखने का प्रयास करें
जब आप हिंदी पढ़ और बोल सकते हैं
तो हिंदी लिख भी सकते हैं
और नहीं लिख सकते,
तो लिखना सीख भी सकते हैं
http://www.giitaayan.com/x.htm पर जाए
और एक बार लिख कर देखें
कैसे लिखें कुछ समझ न आए बात, मुझसे कहें
कोई पल हो दिन हो या रात, मुझसे कहें
कोई मुश्किल कोई परेशानी आए
या लगे कुछ ठीक नहीं है फ़ाँट
मुझसे कहें
ऋषि लिखना हो या लिखना हो श्रृंगार
और लिखें ये रिषि, श्रिन्गार या ष्रंगार
मानें कभी ना हार
मुझसे कहें
मैं हूँ ना
सिएटल 425-898-9325 upadhyaya@yahoo.com
(जावेद अख़्तर से क्षमायाचना सहित)
Thursday, December 31, 2009
2010
Posted by Rahul Upadhyaya at 10:11 AM
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Monday, December 28, 2009
पहेली 32
उतारे जाते हैं ये
हर रात
सोने के वक़्त
और
वहाँ भी जहाँ
एकत्रित होते हैं
ईश्वर के भक्त
उतरवाए जाते हैं ये
रोज़
ताकि हो सके
सुरक्षा का प्रबंध
और
कभी-कभी
अपने आप ही
उतर जाते हैं ये
जब दिखाई दे जाता है
राजनेता सशक्त
न नशा
न घमंड
न जादू है ये
फिर क्या हैं ये
कि चाहे उड़ें या तैरें
उतारते हैं सब इन्हें आजू-बाजू तेरे
=========================
इस पहेली का उत्तर इसकी अंतिम पंक्ति में छुपा हुआ है।
उदाहरण के लिए देखें पहेली 30 और उसका उत्तर।
Posted by Rahul Upadhyaya at 4:27 PM
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14 सितम्बर की पहेलियों का हल:
14 सितम्बर की पहेलियों का हल:
1.
जब भी कहीं लगा न मन
साधु संतों को किया नमन
2.
यह बात सच सौ फ़ीसदी है
कि आरक्षण वालों ने कम फ़ीस दी है
3.
जिन्हें सताते हरिकेन हैं
क्या वे भक्त हरि के न हैं?
4.
इठलाती हसीनाओं को कभी अपना ना गिन
क्या पता कब डस लें बन के नागिन
बोनस:
तुम्हारी बाहों ने दी थी मुझे कल पनाह
वो सच था या थी कोरी कल्पना?
Posted by Rahul Upadhyaya at 12:47 PM
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Labels: riddles_solved
Wednesday, December 23, 2009
मैं ईश्वर के बंदों से डरता हूँ
हर 'हेलोवीन' पे मैं दर पे कद्दू रखता हूँ
लेकिन क्रिसमस पे नहीं घर रोशन करता हूँ
क्यों?
क्योंकि मेरे देवता तुम्हारे देवता से अलग है
लेकिन हमारे भूत-प्रेत में न कोई अंतर है
सब क्रिसमस के पहले खरीददारी करते हैं
मैं क्रिसमस के बाद खरीददारी करता हूँ
क्यों?
क्योंकि सब औरों के लिए उपहार लेते हैं
मैं अपने लिए 'बारगेन' ढूँढता हूँ
सब 'मेरी क्रिसमस' लिखते हैं
मैं 'हेप्पी होलिडेज़' लिखता हूँ
क्यों?
क्योंकि सब ईश्वर पे भरोसा करते हैं
मैं ईश्वर के बंदों से डरता हूँ
सिएटल । 425-445-0827
23 दिसम्बर 2009
========================
हेलोवीन = Halloween
बारगेन = Bargain
मेरी क्रिसमस = Merry Christmas
हेप्पी होलिडेज़ = Happy Holidays
Monday, December 14, 2009
किस्सा टाईगर का
जो आसमां से गिरती है उसे कहते हैं बर्फ़
जो उठता है सीने से उसे कहते हैं दर्द
स्मृतियों में जो अक्सर हो जाते हैं दर्ज़
किस्से जनाब होते हैं सौ फ़ीसदी सर्द
टाईगर के जीवन में आए होगे कई सुनहरे क्षण
लेकिन याद रहेगा उसे वो थेंक्सगिविंग का पर्व
जब बीवी ने घुमाया था थरथराता लोहे का क्लब
और फ़ायर-हायड्रेंट से हुई थी उसकी भिड़ंत
प्यार जो करते हैं नहीं करते हैं तर्क
जो करते हैं तर्क, साथी देते हैं तर्क़
प्यार प्यार है कोई शादी नहीं
कि कर लो तो सात जनम का बेड़ा हो गर्क
प्यार और शादी में बतलाऊँ मैं फ़र्क़
प्यार बेशर्त है, और शादी है फ़र्ज़
जिसको निभाते हैं दोनों कुछ इस तरह
जैसे चुका रहे हो क्रेडिट-कार्ड का कर्ज़
प्यार तो होता है जैसे होता है मर्ज़
कब और कहाँ हो कोई जाने न मर्म
लेकिन होता ज़रूर है, और कल भी ये होगा
मानव के जीवन का यही एकमात्र है धर्म
प्यार किया तो किसी को क्यों हो जलन
प्यार तो बरसे जैसे बरसे गगन
भरे जलाशय, करे तन को मगन
प्यास बुझाए जहाँ लगी हो अगन
प्यार है जीवन के वे अद्वितिय क्षण
जिनके लिए इंसां करे सब अर्पण
टाईगर, सेंफ़र्ड या हो क्लिंटन
सब ने लगाया दाँव तन-मन-धन
सिएटल । 425-445-0827
14 दिसम्बर 2009
================
थेंक्सगिविंग = Thanksgiving
क्लब = club
तर्क = argue
तर्क़ = leave
क्रेडिट-कार्ड = credit card
Posted by Rahul Upadhyaya at 12:52 PM
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Wednesday, December 9, 2009
मेरी भूख
हाथ में मेरे पचासों लकीरें
एक भी उनमें नहीं है लकी रे
करता न खिदमत
न सहता हुकूमत
एक जो किस्मत होती भली रे
खा के भी हलवा
खा के भी पूड़ी
भूख ये मेरी मिटती नहीं रे
दिखता है जोगी
होती जलन है
खा के भी सूखी रहता सुखी रे
कहता है जोगी
सुन बात मेरी
ना तू अनलकी है ना मैं लकी रे
दूजे की प्लेट पे
आँख जो गाड़े
इंसां वही सदा रहता दुखी रे
सोने की, चांदी की
थाल को छोड़ो
पेट तो मांगे जो उगाती ज़मीं रे
सिएटल । 425-445-0827
9 दिसम्बर 2009
================
लकी = lucky
अनलकी = unlucky
Posted by Rahul Upadhyaya at 11:28 AM
आपका क्या कहना है??
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Thursday, November 26, 2009
जन्म
जन्म के पीछे कामुक कृत्य है
यह एक सर्वविदित सत्य है
कभी झुठलाया गया
तो कभी नकारा गया
हज़ार बार हमसे ये सच छुपाया गया
कभी शिष्टता के नाते
तो कभी उम्र के लिहाज से
'अभी तो खेलने खाने की उम्र है
क्या करेंगे इसे जान के?'
सोच के मंद मुस्करा देते थे वो
रंगीन गुब्बारे से बहला देते थे वो
बढ़े हुए तो सत्य से पर्दे उठ गए
और बच्चों की तरह हम रुठ गए
जैसे एक सुहाना सपना टूट गया
और दुनिया से विश्वास उठ गया
ये मिट्टी है, मेरा घर नहीं
ये पत्थर है, कोई ईश्वर नहीं
ये देश है, मातृ-भूमि नहीं
ये ब्रह्मांड है, ब्रह्मा कहीं पर नहीं
एक बात समझ में आ गई
तो समझ बैठे खुद को ख़ुदा
घुस गए 'लैब' में
शांत करने अपनी क्षुदा
हर वस्तु की नाप तोल करे
न कर सके तो मखौल करे
वेदों को झुठलाते है हम
ईश्वर को नकारते है हम
तर्क से हर आस्था को मारते हैं हम
ईश्वर सामने आता नहीं
हमें कुछ समझाता नहीं
कभी शिष्टता के नाते
तो कभी उम्र के लिहाज से
'अभी तो खेलने खाने की उम्र है
क्या करेंगे इसे जान के?'
बादल गरज-बरस के छट जाते हैं
इंद्रधनुष के रंग बिखर जाते है
सिएटल,
26 नवम्बर 2007
(मेरा जन्म दिन)
Thursday, November 19, 2009
मणियाँ
फूलों की बगिया ज्यों किश्तों में खिलती है
इंसां की किस्मत भी किश्तों में जगती है
भला छाते ही बादल कहीं बरखा भी होती है?
होने-बरसने में यारो इक उम्र गुज़रती है
मिलना-बिछड़ना, व हँसना व रोना
इन के ही मिश्रण से शख़्सियत निखरती है
जब आता है संकट, हम खुद को परखते हैं
और मूल्यों-विश्वासों की दुनिया सँवरती है
जब होता है मन का, तो लगता है अच्छा
जब मन का न हो, तभी तो मणियाँ निकलती हैं
सिएटल
19 नवम्बर 2009
Posted by Rahul Upadhyaya at 6:01 PM
आपका क्या कहना है??
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Monday, November 16, 2009
मेरी कलम
कोई पूछे कि न पूछे
ये कलम मुझको बुलाती है
हर मोड़ पे, हर हाल में
ये गीत सुनाती है
शमा जलती है, बुझती है
मिट जाती है जल कर
दिनकर आ के, जगमगा के
चला जाता है थक कर
इक कलम ही है
जो दु:ख-सुख में
मेरा साथ निभाती है
ताज हो, तख्त हो, दौलत हो
ज़माने भर की
उस पे बंदिश कि
न कहो बात अपने मन की
ऐसी ज़िंदगी भी कहीं
ज़िंदगी कही जाती है
कोई पक्षपात करे, द्वेष करे
जाल बिछाए
कोई नेता हो, अभिनेता हो
या लाख कमाए
सब के वादों को, इरादों को
ये साफ दिखाती है
कोई रूठे, कोई फूले
या कोई आँख दिखाए
बन के यमदूत भी
'गर आप मुझे लाख डराए
ये न रूकी है
न रुकती है
न रोकी जाती है
सिएटल
16 नवम्बर 2009
Posted by Rahul Upadhyaya at 11:00 PM
आपका क्या कहना है??
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Friday, November 6, 2009
जहाँ हूँ मैं वहीं उसका ठिकाना है
जहाँ से हम आए हैं
वहीं हमें जाना हैं
ज़मीं से आए हैं
ज़मी में समाना है
रंगीं हो पत्ते
या काले हो बादल
अंत तो सभी का
वही पुराना है
बड़े से आसमां में
मैं ढूंढता था जिसको
टेका जो माथा तो
उसे यहीं पे जाना है
अब गली-गली हाथ फैलाए
मैं भीख मांगूँगा नहीं
क्योंकि कदमों तले मेरे
गड़ा खजाना है
'गर होता वो उपर
तो सोचो आस्ट्रेलिया का क्या होता?
जहाँ हूँ मैं
वहीं उसका ठिकाना है
सिएटल 425-898-9325
6 नवम्बर 2009
Posted by Rahul Upadhyaya at 12:10 AM
आपका क्या कहना है??
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Saturday, October 31, 2009
देख तेरे एन-आर-आई की हालत
Monday, October 26, 2009
हाय! क्या चीज है एन-आर-आई भी
हाय! क्या चीज है एन-आर-आई भी
इसी को शायद कहते हैं ख़ुदा की नेमत
कि केक खाई भी और केक बचाई भी
बात-बात में ले आते हैं देश की बात
कभी करते हैं बड़ाई तो कभी बुराई भी
शाने-वतन में है कुछ इनका भी हाथ
कभी बढ़ाई तो कभी घटाई भी
कल तलक जो थे बाप-दादा के दुश्मन
आज उन्हीं के बन बैठे घर-जमाई भी
भूख बढ़ती है तो बढ़ती ही चली जाती है
जेब में है लाख मगर छूटती नहीं एक पाई भी
शौच का ढंग जो बदला तो बदली सोच भी साथ
हाय किस मिट्टी का बना है एन-आर-आई भी
कैसा भावुक है ये एन-आर-आई यारो
कभी देता है मुझे गाली तो कभी बधाई भी
सिएटल 425-898-9325
26 अक्टूबर 2009
(फ़िराक गोरखपुरी से क्षमायाचना सहित)
Posted by Rahul Upadhyaya at 11:11 PM
आपका क्या कहना है??
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Wednesday, October 21, 2009
एच-वन से भरी मेरी सी-वी
मजबूर करे पीसने के लिए
पागल सा भटकता रहता हूँ
सही दाम पे मैं बिकने के लिए
मिलियन्स बनाउँगा मैं भी कभी
मैं भी अमीर कहलाऊँगा
हर ज़रूरत जब होगी पूरी
तब लौट के घर मैं जाऊँगा
घर बार सभी मैं तजता हूँ
सपनों के पीछे जगने के लिए
निर्धन की तरह मैं रहता हूँ
पाई-पाई मैं गिनता हूँ
फ़्री में कोई कुछ भी बाँटे
मैं हाथ फ़ैलाए फिरता हूँ
आईस-क्रीम का एक स्कूप ही काफ़ी है
घंटों लम्बी लाईन में लगने के लिए
सिएटल 425-898-9325
21 अक्टूबर 2009
(इंदीवर से क्षमायाचना सहित)
================================
एच-वन = H1; सी-वी = CV = Curriculum Vitae
मिलियन्स = millions; फ़्री = free
आईस-क्रीम = ice-cream; स्कूप = scoop; लाईन = line
Tuesday, October 20, 2009
शुभकामनाओं की मियाद
साल दर साल
मन में उठता है सवाल
शुभकामनाओं की मियाद
क्यूं होती है बस एक साल?
चलो इसी बहाने
पूछते तो हो
एक दूसरे का हाल
साल दर साल
जब जब आता नया साल
Posted by Rahul Upadhyaya at 10:38 PM
आपका क्या कहना है??
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Wednesday, October 14, 2009
शुभ दीपावली
Posted by Rahul Upadhyaya at 4:02 PM
आपका क्या कहना है??
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Labels: Diwali
Friday, October 9, 2009
मनमोहक दृश्य
बहारें रंग भरती हैं
कोहरा रंग चुराता है
भरने-लुटने के संवाद में
पत्तियों का रूप मनोरम हो जाता है
बावला बाबुल
वात्सल्य का अंधा
समझ नहीं कुछ पाता है
शाख बढ़ा कर
हाथ हिला कर
शू-शू करता जाता है
नटखट कोहरा
बाज न आए
इत-उत मंडराता है
कभी इधर से
कभी उधर से
पत्तियों को छूता जाता है
देख कुदरत की ऐसी झाँकी
मन मोहित हो जाता है
कवि हृदय कविता लिखता है
भँवरा गुन-गुन गुण गाता है
सिएटल 425-898-9325
9 अक्टूबर 2009
Posted by Rahul Upadhyaya at 2:10 PM
आपका क्या कहना है??
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Wednesday, October 7, 2009
जीत गया भई जीत गया
जीत गया भई जीत गया
इंडिया वाला जीत गया
गोरों की जमात में
बंदा अपना दिख गया
नाम ही अपने कुछ ऐसे हैं
कि दूर से पहचान लेते हैं
ये दक्षिण का है
ये अहिंदी है
बिन बोले ताड़ लेते हैं
एक बार फिर वही जीता है
जो अंग्रेज़ी बोलना सीख गया
सीख गया भई सीख गया
इंडिया वाला सीख गया
आत्मसम्मान खो के वो
सम्मान पाना सीख गया
भाषा से विचार बनें
और विचार से आचार
जो माँ की बोली बोल न पाए
वो माँ से करेगा क्या प्यार
सोने चाँदी के टुकड़ों पे
माँ का दूध फिर आज बिक गया
बिक गया भई बिक गया
इंडिया वाला बिक गया
गरीबी और बेरोज़गारी में
माँ से माँ का लाल छीन गया
ज्ञान-विज्ञान की भाषा में
कहीं दिल की बात भी होती है?
लाख चांदनी रात में हो
रात तो रात ही होती है
वो जब समझेगा तब समझेगा
आज तो बंदा हिट गया
हिट गया भई हिट गया
इंडिया वाला हिट गया
दूर-दराज की रोशनी पे
नूर अपना मर-मिट गया
सिएटल 425-898-9325
7 अक्टूबर 2009
Posted by Rahul Upadhyaya at 4:05 PM
आपका क्या कहना है??
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Sunday, October 4, 2009
करवा चौथ
भोली बहू से कहती हैं सास
तुम से बंधी है बेटे की सांस
व्रत करो सुबह से शाम तक
पानी का भी न लो नाम तक
जो नहीं हैं इससे सहमत
कहती हैं और इसे सह मत
करवा चौथ का जो गुणगान करें
कुछ इसकी महिमा तो बखान करें
कुछ हमारे सवालात हैं
उनका तो समाधान करें
डाँक्टर कहें
डाँयटिशियन कहें
तरह तरह के
सलाहकार कहें
स्वस्थ जीवन के लिए
तंदरुस्त तन के लिए
पानी पियो, पानी पियो
रोज दस ग्लास पानी पियो
ये कैसा अत्याचार है?
पानी पीने से इंकार है!
किया जो अगर जल ग्रहण
लग जाएगा पति को ग्रहण?
पानी अगर जो पी लिया
पति को होगा पीलिया?
गलती से अगर पानी पिया
खतरे से घिर जाएंगा पिया?
गले के नीचे उतर गया जो जल
पति का कारोबार जाएंगा जल?
ये वक्त नया
ज़माना नया
वो ज़माना
गुज़र गया
जब हम-तुम अनजान थे
और चाँद-सूरज भगवान थे
ये व्यर्थ के चौंचले
हैं रुढ़ियों के घोंसले
एक दिन ढह जाएंगे
वक्त के साथ बह जाएंगे
सिंदूर-मंगलसूत्र के साथ
ये भी कहीं खो जाएंगे
आधी समस्या तब हल हुई
जब पर्दा प्रथा खत्म हुई
अब प्रथाओ से पर्दा उठाएंगे
मिलकर हम आवाज उठाएंगे
करवा चौथ का जो गुणगान करें
कुछ इसकी महिमा तो बखान करें
कुछ हमारे सवालात हैं
उनका तो समाधान करें
Posted by Rahul Upadhyaya at 11:01 PM
आपका क्या कहना है??
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Thursday, October 1, 2009
मैं आब हूँ, मगर …
मैं आब हूँ
मगर बेताब नहीं हूँ
आपे से बाहर हो जाऊँ
इतना बदहवास नहीं हूँ
कि उठूँ और उठ के
सबको डूबो दूँ
मैं सर से कदम तक
लबलबाता
सैलाब नहीँ हूँ
मैं सोता हूँ
बहता हूँ
गुज़रता हूँ बागों से
हरी-भरी क्यारियोँ में
मिलता हूँ प्यासों से
मैं आब हूँ
मगर तेज धार नहीं हूँ
कि गिरूँ और गिर के
सबको मिटा दूँ
मैं उपर से नीचे
भड़भड़ाता
प्रपात नहीँ हूँ
अंजलि भरो
भर के मुँह से लगा लो
घड़े भरो
भर के सर पे बिठा लो
तुम जैसे कहो
बिलकुल वैसे रहूँ मैं
जिस रूप में भी ढालो
उस रूप में ढलूँ मैं
लोटे में
बाल्टी में
किसी में भी डालो
ठंडे में
गरम में
किसी में मिला लो
मैं आब हूँ
मगर 'फ़ेक' आब नहीँ हूँ
कि पल भर चमकूँ
और गायब हो जाऊँ
मैं सूरज के भय से
सकपकाता
शब-आब नहीँ हूँ
धरा से परे
तुमने जहाँ धरा कदम है
न पा के मुझे
किया किस्सा खतम है
तुम मुझ पे हो निर्भर
मुझ बिन निर्बल
मुझ से है जीवन
जलते हो मुझ बिन
मैं आब हूँ
मगर तेजाब नहीं हूँ
कि छल से छलकूँ
और सबको सताऊँ
मैं तिरिया के नैनों में
डबडबाता
बे-हिस-आब नहीँ हूँ
सिएटल 425-898-9325
1 अक्टूबर 2009
====================
आब = पानी
प्रपात = झरना
फ़ेक = fake
शब-आब = ओस
बे-हिस = भाव रहित
Posted by Rahul Upadhyaya at 4:43 PM
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Monday, September 28, 2009
माताएँ खलनायकों की
रात को सोते समय
बेटे को सुनाता हूँ कहानी
राम के
कृष्ण के
उद्भव की कहानी
बहुत दिनों तक
सुनने के बाद
बेटा एक दिन बोला
कृष्ण की माँ थी देवकी
और यशोदा जी ने उन्हें पाला
राम की माँ थी कौशल्या
और कैकयी ने उन्हें निकाला
लेकिन
रावण की
कंस की
माँ के बारे में
क्यूँ नहीं कुछ बताया?
क्या कहूँ?
कैसे कहूँ?
कैसे उसे समझाऊँ
कि इस कोशिश में
कि कहानी सशक्त बन सके
कई खटकर्म किए हैं जाते
घटनाएँ जोड़ी जाती हैं
पात्र छाँटे जाते
खलनायक पैदा नहीं होते
खलनायक बनाए हैं जाते
तरह तरह के जामे
पहनाए उन्हें हैं जाते
नख-शिखा-दाढ़ी-मूँछ
सर-सींग लगाए हैं जाते
खलनायक पैदा नहीं होते
खलनायक बनाए हैं जाते
सिएटल 425-898-9325
विजय दशमी, 2009
Thursday, September 17, 2009
अर्जुन आँखें
हाईवे बने
और गाँव के गाँव
उजड़ गए
लोग
फ़र्राटे से
हवा से बातें करते-करते
उपर-उपर से निकल गए
जब से जी-पी-एस आया
समंदर, झील, तालाब, झरने
सब के सब ओझल होते जा रहे हैं
इस्कान का मंदिर
बच्चों का स्कूल
रंग बदलते पत्ते
सामने होते हुए भी
दिखाई नहीं देते
हमारी
अर्जुन आँखें
गड़ी रहती हैं
एल-सी-डी स्क्रीन के
एक
नीले
नुकीले
तीर पर
सिएटल 425-898-9325
17 सितम्बर 2009
Posted by Rahul Upadhyaya at 11:36 PM
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Tuesday, September 15, 2009
गुल खिलाना है बाकी
Posted by Rahul Upadhyaya at 10:11 PM
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Monday, September 14, 2009
पहेलियाँ
पिछले वर्ष की तरह इस बार भी हिंदी दिवस के उपलक्ष्य पर प्रस्तुत हैं कुछ पहेलियाँ। पहेलियों के उत्तर से 'शुद्ध हिंदी' वालों को आपत्ति हो सकती है। क्योंकि कुछ शब्द या तो उर्दू के हैं या अंग्रेज़ी के - शुद्ध हिंदी के नहीं। या ये कहूँ कि उनकी जड़ संस्कृत में नहीं है। मैं ये समझता हूँ कि ऐसे शब्दों से हिंदी समृद्ध होती है, नष्ट नहीं। चाहे कितनी ही नदियाँ सागर में मिल जाए, सागर नष्ट नहीं होता, भ्रष्ट नहीं होता, प्रदूषित नहीं होता।
कैसे हल करें? उदाहरण स्वरूप पहेली #19 से पहेली #26 और उनके हल देखें। कुछ उदाहरण नीचे भी देख लें।
(1)
जब भी कहीं लगा X XX(1, 2)
साधु-संतों को किया XXX (3)
(2)
यह बात सच सौ XXX है (3)
कि आरक्षण वालों ने कम XX X है (2,1)
(3)
जिन्हें सताते XXXX हैं (4)
क्या वे भक्त XX X X हैं? (2, 1, 1)
(4)
इठलाती हसीनाओं को कभी अपना X XX (1, 2)
क्या पता कब डस लें बन के XXX (3)
बोनस:
तुम्हारी बाहों ने दी थी मुझे XX XXX (2,3)
वो सच था या थी कोरी XXXX ? (3.5)
उदाहरण:
क -
जब तक देखा नहीं ??? (3)
अपनी खामियाँ नज़र ?? ?(2, 1)
उत्तर:
जब तक देखा नहीं आईना
अपनी खामियाँ नज़र आई ना
ख -
मफ़लर और टोपी में छुपा ?? ?? (2, 2)
जैसे ही गिरी बर्फ़ और आई ??? (3)
उत्तर:
मफ़लर और टोपी में छुपा सर दिया
जैसे ही गिरी बर्फ़ और आई सर्दियाँ
अधिक मदद के लिए अन्य पहेलियाँ यहाँ देखें:
http://mere--words.blogspot.com/search/label/riddles_solved
शुद्ध हिंदी के विषय पर आप मेरा एक लेख और एक कविता यहाँ देख सकते हैं:
शुद्ध हिंदी - एक आईने में - http://mere--words.blogspot.com/2007/12/blog-post_03.html
बदलते ज़माने के बदलते ढंग हैं मेरे - http://mere--words.blogspot.com/2008/06/blog-post_18.html
सद्भाव सहित,
राहुल
पहेली 31 का उत्तर
खाऊँ जो एक तो हो जाऊँ मैं चित्त
खा लूँ जो तीन तो हो जाऊँ मैं ठीक
खा के जिसे जवां होते शहीद
खाते उसे बच्चे खुशी से खरीद
कैसा ये जादू है? कैसी है ये माया?
समझा वही जो रंगोली देख पाया
=========================
इस पहेली का उत्तर इसकी अंतिम पंक्ति में छुपा हुआ है।
उत्तर: गोली
Posted by Rahul Upadhyaya at 11:22 PM
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Sunday, September 13, 2009
तुम्हारे बिना
बागी ---
बागबां ---
बागों ---
गुल ---
ऐसा नहीं
कि गला रूंध गया
या कलम टूट गई
या शब्द नहीं मिलें
बल्कि
मैं यह दिखलाना चाहता हूँ कि
कितने बेमानी हैं शब्द
शब्दों के बिना
जैसे
मैं
तुम्हारे बिना
सिएटल 425-898-9325
13 सितम्बर 2009
Posted by Rahul Upadhyaya at 11:16 PM
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Saturday, September 12, 2009
मेरे दिल पर जो लिखा है
ये मेरे दिल पर
जो तुमने
टाईप राईटर से लिखा है
उसे अगर बदलोगी
तो बहुत गड़बड़ हो जाएगी
लिखोगी कुछ
पढ़ा कुछ जाएगा
नया-पुराना सब
गड्डमड्ड हो जाएगा
अगर बदलना चाहो
तो सिर्फ़ दो ही सूरते हैं
या तो मुझे भस्म कर दो
या फिर कोई ऐसी करेक्शन फ़्लूईड ले आओ
जो फिर से मुझे कोरा कर दे
सिएटल 425-898-9325
12 सितम्बर 2009
Posted by Rahul Upadhyaya at 10:55 PM
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Friday, September 11, 2009
तुम्हारी सेहत
आओगे तुम तो, तुमसे करवाएंगे काम
बागों में बगीचों में तुमसे डलवाएंगे खाद
होटलों के गंदे कमरे तुमसे करवाएंगे साफ़
डाक्टरों की वर्दियाँ भी तुमसे करवाएंगे तैयार
लेकिन तुम्हारी सेहत का न कभी कोई होगा जिम्मेदार
वैध-अवैध के चक्कर में कुछ ऐसे फ़सें वैद्य-साहूकार
कि देशवासियों को छोड़ के करते दुनिया का उपचार
आज नाईजिरिया तो कल ईथियोपिया का करते जीर्णोंद्धार
और दूर-दराज के गाँव में जा के देते टीकों का उपहार
लेकिन तुम्हारी सेहत के न वे कभी बनते जिम्मेदार
वैध-अवैध का भेद न देखें, जब जम कर कर लेती सरकार
काम कराए और खूब कराए, कम वेतन पे साहूकार
जो भी चाहो हम से ले लो, पल पल ललचाते बाज़ार
पैसा-कौड़ी पास नहीं तो ले लो किश्तों पे उधार
लेकिन तुम्हारी सेहत का न कभी कोई होगा जिम्मेदार
बेटा वैध, बाप अवैध, जहाँ कहता हो संविधान
कागज़ के पुर्जो पे निर्भर जहाँ हो इंसानों की जान
दूसरों की ज़मी छीन के जहाँ पर बनते हो मकान
उस जहाँ के बाशिंदे क्या समझेंगे क्या होता है ईमान?
इसीलिए तुम्हारी सेहत का न कभी कोई होता जिम्मेदार
सिएटल 425-898-9325
11 सितम्बर 2009
Wednesday, September 9, 2009
नौ, नौ, नौ?
नौ, नौ, नौ?
नो, नो, नो!
बस
तीन साल,
तीन महीने,
और तीन दिन और
फिर
विश्व में होगा
एक भयंकर विस्फ़ोट
आएगी प्रलय
और
होगा सबका अंत
कहते हैं
टी-वी पे बैठे विद्वत् जन
अरे! गिनती गिनना अगरचे आवश्यक अवश्य
गूढ़ अर्थ तलाशना उनमें है एक व्यर्थ प्रपंच
कैलेंडरों में तिथियाँ आती-जाती रहीं सर्वदा
लेकिन कैलेंडर देख के कभी कुछ न घटा
न बिजली गिरी, न बरसी घटा
न आए भूकम्प, न उबली धरा
आज तक आए जब-जब संकट यहाँ
इंसा का हाथ मिला सदा हाथ पे धरा
सिएटल 425-898-9325
9 सितम्बर 2009
Posted by Rahul Upadhyaya at 10:56 PM
आपका क्या कहना है??
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Tuesday, September 8, 2009
हर शाम
कुछ आते हैं उग
कुछ उगाता हूँ मैं
हर शाम
दर्द की फसल उगाता हूँ मैं
टेबल लैम्प की
पीली
मटमैली
रोशनी में
आँखें मूंदे
दर्द की उंगली थामे
मैं
पहुँच जाता हूँ
तुम तक
तुम तक
तुम तक
और
उस तक
न कोई है द्वंद
न कोई है तर्क
तुममें और उसमें
न कोई है फ़र्क
जाता हूँ सोने
भीग जाता है तकिया
उगता है सूरज
सब जाता है सूख
होते-होते शाम
कुछ आते हैं उग
कुछ उगाता हूँ मैं
हर शाम …
सिएटल 425-898-9325
8 सितम्बर 2009
Posted by Rahul Upadhyaya at 11:02 PM
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Wednesday, September 2, 2009
तेरह महीने पहले
तेरह महीने पहले
जो कुछ घटा था
उससे
जीवन घटा नहीं
जीवन बढ़ा था
घटाएँ
घटाना नहीं
सीखाती हैं जोड़ना
सोचो भला
कैसे भरते जलाशय?
गरज-गरज कर
जो न बरसती घटाएँ?
बिना गरज के
कौन करता है ऐसे?
नि:स्वार्थ भाव से
दु:ख हरता है ऐसे?
तेरह महीने पहले
जो कुछ घटा था
उससे
जीवन घटा नहीं
जीवन बढ़ा था
सिएटल 425-898-9325
2 सितम्बर 2009
Posted by Rahul Upadhyaya at 11:37 PM
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Tuesday, September 1, 2009
मैं भूल जाता हूँ अक्सर
तुम्हें भूलना
मैं भूल जाता हूँ अक्सर
और
कर लेता हूँ याद
जब-जब
ढलता है सूरज
जलता है दीपक
उड़ती हैं ज़ुल्फ़ें
खनकती है पायल
हँसते हैं बच्चे
घिरते हैं बादल
सोचता हूँ
एक प्रोग्राम बना लूँ
कैलेंडर में
एक रिमाईंडर लगा दूँ
जो हर दूसरे दिन
तुम्हें भुलाना है
मुझे याद दिला दे
सिएटल 425-898-9325
1 सितम्बर 2009
Posted by Rahul Upadhyaya at 11:06 PM
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Sunday, August 30, 2009
मेरी ये बोली
आभा है मेरी
मेरी ये बोली
पल-पल हँसाए मुझे
कर के ठिठोली
भगवा जो पहने
भगवान चाहे
अपना जो समझे
अपनाना चाहे
वे जनती हैं बच्चे
जनाना कहलाए
वे बहते हैं टप-टप,
बहाना कहलाए
पी ली जो बोतल
खाली कहे सब
खा ली जो रोटी
पीली बने सब
मेरी मिली और
मेरी ये बोली
प्रिये है प्रिय मुझे
तेरी ये बोली
प्यारी ये भाषा
है कितनी भोली
जो हुई नहीं
उसे कहती है होली
जब भाषा में हो
गूढ़ गुण इतने सारे
क्यूँ न लगे जग में
'जय हो' के नारे
सिएटल 425-898-9325
30 अगस्त 2009
Posted by Rahul Upadhyaya at 12:30 PM
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Saturday, August 29, 2009
पहेली 31
खाऊँ जो एक तो हो जाऊँ मैं चित्त
खा लूँ जो तीन तो हो जाऊँ मैं ठीक
खा के जिसे जवां होते शहीद
खाते उसे बच्चे खुशी से खरीद
कैसा ये जादू है? कैसी है ये माया?
समझा वही जो रंगोली देख पाया
=========================
इस पहेली का उत्तर इसकी अंतिम पंक्ति में छुपा हुआ है।
पहेली 30 का उत्तर
एक अच्छा खासा इंसान
फ़ौरन बन जाए हैवान
मानो मिल जाए माचिस
और जल जाए मकान
पी ले पीलें जाम
हो जाए तबियत हरी
आव देखे न ताव
कह दे बातें खरी
ये कैसा पदार्थ उसने पिया?
कि कोई भी उसे न कहे पिया?
हर कोई कहे रंगीला उसे
न राधा चाहे न शीला उसे
=========================
इस पहेली का उत्तर इसकी अंतिम पंक्ति में छुपा हुआ है।
उत्तर: नशीला
Posted by Rahul Upadhyaya at 11:07 PM
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Sunday, August 23, 2009
धर्मरक्षक
मैं एक इंजीनियर हूँ
और भारत से बाहर रहता हूँ
लेकिन मुझमें भारतीय संस्कार अभी भी बरकरार है
अभी कुछ दिन पहले की बात है
एक मंदिर बनाने के लिए धन इकट्ठा किया जा रहा था
मैंने भी तुरंत डेड़ सौ डालर का चैक काट कर दे दिया
अरे भई हम अपने धर्म की रक्षा नहीं करेंगे तो कौन करेगा?
और मंदिर में अपने नाम की एक टाईल भी लगवा ली
उसके लिए अलग से 250 डालर दिए
साथ में अपनी पत्नी और बच्चों का भी नाम लिखवा दिया
अरे नाम तो मैं अपने माता-पिता का भी लिखवा देता
लेकिन क्या करूँ
वे अभी ज़िंदा हैं
******
अब मैं हर रविवार मंदिर जाता हूँ
आरती में
कीर्तन में
हिस्सा लेता हूँ
अपने बच्चों को भी साथ ले जाता हूँ
ताकि अपनी संस्कृति की पहचान अगली पीढ़ी में बनी रहे
अपने घर में
पूजा पाठ कहाँ हो पाती है?
पहले ही जीवन में भागदौड़ इतनी है
कि अब पूजा-पाठ की मुसीबत कौन सर पर ले?
उन्हें नहलायो-धुलायों, पोशाक पहनाओं, तिलक लगाओं
दीप जलाओ, अगरबत्ती लगाओ
ऊफ़! कितनी आफ़त है
और उपर से दीपक और अगरबत्ती से कारपेट पर कालिख और बढ़ जाती है
साफ़ ही नहीं होती
मंदिर में पुजारी जी है
जो सब सम्हाल लेते हैं
उन्हें समय से उठाते हैं, सुलाते हैं, खिलाते हैं
हम हफ़्ते में एक दिन जाकर माथा टेक आते हैं
हुंडी में कुछ दान-दक्षिणा डाल आते हैं
वे भी खुश
हम भी खुश
और जैसा कि मैंने आपसे कहा
बावजूद इसके कि
मैं एक इंजीनियर हूँ
और भारत से बाहर रहता हूँ
मुझमें भारतीय संस्कार अभी भी मौजूद है
और तो और
मैं अपने माता-पिता को ईश्वर का दर्जा देता हूँ
मैं हर साल भारत जाता हूँ
कभी क्रिसमस की छुट्टी पर
तो कभी गर्मी की छुट्टी पर
उनसे मिल कर आता हूँ
अपने बच्चों को भी साथ ले जाता हूँ
ताकि अपने पूर्वजों की पहचान अगली पीढ़ी में बनी रहे
इस परदेस में
उनकी देख-रेख कहाँ हो पाती?
पहले ही जीवन में भागदौड़ इतनी है
कि अब उनकी मुसीबत कौन सर पर ले?
उनके साथ बात करो, उन्हें डाक्टर के पास ले जाओ, उनके लिए अलग भोजन बनाओ
ऊफ़! कितनी आफ़त है
और उपर से रोज़ रोज साड़ी, धोती वाशिंग मशीन में कहाँ धुल पाती हैं
और बाथटब में धोओ तो रंग अलग से निकलता है
बाथरूम इतने गंदे हो जाते हैं
कि साफ़ ही नहीं होते
भारत में एक आया है
जो सब सम्हाल लेती है
उन्हें समय से खिलाती है, पिलाती है, दवाई देती है, मालिश करती है
हम साल में एक बार जाकर उनसे आशीर्वाद ले आते हैं
आया को उपहार दे आते हैं
वह भी खुश
हम भी खुश
सिएटल 425-898-9325
23 अगस्त 2009
Posted by Rahul Upadhyaya at 11:18 PM
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Saturday, August 22, 2009
पहेली 30
एक अच्छा खासा इंसान
फ़ौरन बन जाए हैवान
मानो मिल जाए माचिस
और जल जाए मकान
पी ले पीलें जाम
हो जाए तबियत हरी
आव देखे न ताव
कह दे बातें खरी
ये कैसा पदार्थ उसने पिया?
कि कोई भी उसे न कहे पिया?
हर कोई कहे रंगीला उसे
न राधा चाहे न शीला उसे
=========================
इस पहेली का उत्तर इसकी अंतिम पंक्ति में छुपा हुआ है।
उदाहरण के लिए देखें पहेली 28 और उसका हल।
Friday, August 21, 2009
पहेली 29 का उत्तर
पहेली
मन में उठी कुछ ऐसी ??? (3)
पसीने से नहा, हुआ ?? ?? (4)
काँप रहा था हर ?? ?? (4)
कोई था वहाँ, जहाँ था ??? (3)
उत्तर
मन में उठी कुछ ऐसी तरंग
पसीने से नहा, हुआ तर अंग
काँप रहा था हर पल अंग
कोई था वहाँ, जहाँ था पलंग
Posted by Rahul Upadhyaya at 11:59 PM
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Labels: riddles_solved
पहेली 28 का उत्तर
पहेली
खिलते हैं फूल
बिखेरते हैं रंग
गाँव-गाँव
गली-गली
उड़ती है पतंग
इसके होते ही शुरू
होता है शरद का अंत
इस पर लिख कर गए
कवि निराला और पंत
मंदबुद्धि मैं
और आप अकलमंद
आप ही सुलझाए
मेरे मन का ये द्वंद
बस के पीछे तो होता है
बस काला धुआँ
फिर इसका नामकरण
क्यों ऐसा हुआ?
व और ब में कभी होता होगा फ़र्क
आज तो भाषा का पूरा बेड़ा है गर्क
गंगा को गङ्गा को लिखने वाले बचे हैं कम
ङ और ञ को कर गई बिंदी हजम
हिंदी और हिंदीभाषी का होगा शीघ्र ही अंत
ऐसी घोषणा कर रहे हैं ज्ञानी-ध्यानी-महंत
ब-नाम से हम-तुम आज पहचानते जिसे
बोलो क्या कहते थे ॠषि व संत उसे?
सिएटल,
28 जनवरी 2009
=========================
इस पहेली का उत्तर इसकी अंतिम पंक्ति में छुपा हुआ है।
उत्तर:
वसंत
Posted by Rahul Upadhyaya at 11:54 PM
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Thursday, August 20, 2009
मस्त-मौला चाँद
होता होगा सूरज में
चाँद से ज्यादा प्रकाश
लेकिन चाँद भी अपना मस्त है
और सूरज से कम नहीं है खास
एक राज़ की बात बताऊँ?
चाँद है निर्भीक
और सूरज है डरपोक
तभी तो रात को कभी बाहर निकलता नहीं है
और चाँद?
अपनी मर्जी का मालिक
अपनी धुन में मस्त
जब मन चाहे उगे
जब चाहे अस्त
न सूरज से डरे
न तारों से डरे
सब के सामने
सर उठा के चले
और कभी कभी तो
ऐसी गोली दे जाए
कि कहीं न दिखे
अरे भई
किसी के बाप के नौकर थोड़े ही है
जो रोज-रोज अपनी सूरत दिखाते फिरे?
सिएटल 425-898-9325
20 अगस्त 2009
Posted by Rahul Upadhyaya at 3:51 PM
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Wednesday, August 19, 2009
भारत छोड़ो आंदोलन
गुर्रु विसा
सुरूर भागने का सब पे चढ़ा
है भारत वो आज कहाँ
जो अंग्रेजों से था कभी लड़ा
जहाँ डाल-डाल पे उड़ने को
आतुर बैठी है चिड़िया
वो भारत देश है भैया
जहाँ सत्य, अहिंसा और धरम की
पग-पग उड़ती धज्जियाँ
वो भारत देश है भैया
जहाँ जो भी परिंदा
घर से निकला
लौट के फिर न आया
शौच के ढंग ने
सोच यूँ बदली
परदेस उसको भाया
भुल गया वो अपनी माटी,
अपने बापू-मैया
वो भारत देश है भैया
ये धरती वो
जहाँ ॠषि-मुनि
जपते प्रभु नाम की माला
हरि ॐ, हरि ॐ, हरि ॐ, हरि ॐ
जहाँ अन्याय होता देख भी
उनके मुँह पे रहता ताला
जहाँ ईश्वर सबसे पहले खाए,
खाए खीर-सेवईयाँ
वो भारत देश है भैया
जहाँ आसमान से बाते करते,
नेता और सितारें
किसी नगर में, किसी समय पे,
किसी के काम न आते
उल्टा ठूँस-ठूँस वे माल दबाए,
दबाए करोड़ों रुपया
वो भारत देश है भैया
सिएटल 425-898-9325
19 अगस्त 2009
(राजेन्द्र कृष्ण से क्षमायाचना सहित)
Posted by Rahul Upadhyaya at 4:54 PM
आपका क्या कहना है??
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Tuesday, August 18, 2009
मोम
जलती है डोर
पिघलता है मोम
धीरे-धीरे इंसां
मरता है रोज़
जो जल चुका
उसे जलाते हैं लोग
कैसे कैसे
नादां है लोग
मौत भी जिसका
इलाज नहीं
पुनर्जन्म है एक
ऐसा रोग
घर बसाना
है एक ऐसा यज्ञ
जीवन जिसमें
हो जाए होम
जो भुल चुका
हर भूल-चूक
इंसां वही
पाता है मोक्ष
कर्मरत रहो
मुझसे कहता है जो
आसन पे बैठ
खुद जपता है ॐ
रोम-रोम में
बस
बस जाए वो
फिर कैसी काशी,
कैसा रोम?
सिएटल 425-898-9325
18 अगस्त 2009
Posted by Rahul Upadhyaya at 10:47 PM
आपका क्या कहना है??
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Friday, August 14, 2009
5237 वीं जन्माष्टमी?
कितनी अजीब बात है
कि हमें उनका जन्मवर्ष तो ठीक से ज्ञात नहीं
लेकिन उनके जन्म की घड़ी है अच्छी तरह से याद
जबकि उस ज़माने में घड़ी थी ही नहीं
और अब
ग्रीनविच से घड़ी मिलाकर के
वृंदावन के लोग
रात के ठीक बारह बजे
मनाते हैं श्री कृष्ण का
न जाने कौन सा जन्मदिन
Posted by Rahul Upadhyaya at 1:38 PM
आपका क्या कहना है??
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Tuesday, August 11, 2009
15 अगस्त की याद में
हम थे अलग
इसलिए हुए अलग
या
हुए अलग
इसलिए अब हैं अलग?
'बिग बैंग' के नाद ने हमें
कर दिया जिनसे दूर
कोशिश उनसे मिलने की
हम करते हैं भरपूर
लेकिन पास-पड़ोस में जो रहते हैं
उनसे करें न प्यार
खड़ी हैं कई दीवारें
जिनके बंद पड़े हैं द्वार
छोटी सी इस धरती पर
जब-जब खींची गई रेखाएँ
नए-नए परचम बने हैं
और गढ़ी गई कई गाथाएँ
अब सब खुद को हसीं बताते हैं
और औरों की हँसी उड़ाते हैं
हम ऐसे हैं, हम वैसे हैं
कह-कह के वैमनस्य बढ़ाते हैं
हम सही और तुम गलत
जब राष्ट्र-प्रेम के परिचायक बन जाते हैं
तब इस वाद-विवाद की वादी में
हम सुध-बुध अपनी खोने लगते हैं
और दूर दराज के ग्रहों पर
विवेक खोजने लग जाते हैं
सिएटल,
11 अगस्त 2009
Posted by Rahul Upadhyaya at 12:51 PM
आपका क्या कहना है??
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Sunday, August 9, 2009
मसला
हर मसला
'मसल' से
मसला नहीं जाता
हो चौखट पे सैलाब
तो उससे लड़ा नहीं जाता
जब से सुना
कि लकीरों में तक़दीर है मेरी
मेरे हाथों से
मेरा हाथ
मला नहीं जाता
समंदर में मंदिर
कहीं छुपा है ज़रूर
बिन जूते उतारे
उसमे उतरा नहीं जाता
जब भी सँवरती हैं,
बहुत बिगड़ती हैं ज़ुल्फ़ें
कहती हैं
क्यों आज़ाद हमें रखा नहीं जाता?
मुझे होती समझ
तो तुम्हें न बताता?
कि कुछ होती हैं बातें
जिन्हें कहा नहीं जाता
सिएटल
9 अगस्त 2009
Posted by Rahul Upadhyaya at 11:15 PM
आपका क्या कहना है??
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Thursday, August 6, 2009
मय न होती तो क्या होता?
मय न होती तो क्या होता?
नस्ल का मसला बढ़ गया होता
तू-तू मैं-मैं होती रहती
जल्दी खत्म न झगड़ा होता
न साकी होता, न सलीका होता
प्रेम-प्यार का रंग फ़ीका होता
शेर-ओ-शायरी की बात छोड़िए
ग़ालिब तक न पैदा होता
देवदास को हम जान न पाते
नीरज से वंचित रह जाते
रास-रंग का साथ न होता
आदमी बहुत बेसहारा होता
न पीते लोग, न पिलाते लोग
नपे-नपाए रह जाते लोग
मन में कोई आग न होती
अवतरित न कोई मसीहा होता
वे पागल हैं, वे बचकाने हैं
जो मय को बुरा बताते हैं
इक मय ने ही हमें संयम में रखा
वरना बुत साबूत कोई बचा ना होता
मय और माया का साथ पुराना
मय बिना जीवन बेगाना
यह न होती हम न होते
ब्रह्मा ने ब्रह्माण्ड तक रचा ना होता
सिएटल,
6 अगस्त 2009
Posted by Rahul Upadhyaya at 3:30 PM
आपका क्या कहना है??
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Tuesday, August 4, 2009
मेल और ई-मेल
मेल थी सुस्त
ई-मेल है चुस्त
मेल थी महंगी
ई-मेल है मुफ़्त
ई-मेल का सिलसिला हुआ शुरु
डाकिये का आना जाना हो गया बंद
पड़ोसी भी भेजने लगे ई-मेल
और मेल-मिलाप का हो गया अंत
मेल में कई बाधाएं थीं
नाप तोल की सीमाएं थीं
फिर भी साथ ले आते थे
छोटे लिफ़ाफ़ो में बहनों का गर्व
हर भैया दूज और राखी के पर्व
मेल में कई बाधाएं थीं
नाप तोल की सीमाएं थीं
फिर भी साथ ले आते थे
होठों की लाली, हल्दी के निशां
जो जता देते थे प्रेम, कुछ लिखे बिना
मेल में कई बाधाएं थीं
नाप तोल की सीमाएं थीं
फिर भी साथ ले आते थे
माँ के आंसूओं से मिटते अक्षर
जो अभी तक अंकित हैं दिल के अंदर
मेल में कई बाधाएं थीं
नाप तोल की सीमाएं थीं
ई-मेल में नहीं कोई रोक-टोक
बकबक करे या भेजे 'जोक'
पूरे करें आप अपने शौक
किस काम का ये बेलगाम विस्तार?
समाता नहीं जिसमें अपनों का प्यार
गिगाबाईट का फ़ोल्डर गया है भर
एक भी खत नहीं उसमें मगर
जो मुझको आश्वासित करे
न सी-सी हो न बी-सी-सी हो
मुझको बस सम्बोधित करे
आदमी या तो है आरामपरस्त
या फिर है कुछ इस कदर व्यस्त
कि थोक में बनाता पैगाम है
ऑटो सिग्नेचर से करता प्रणाम है
सब हैं सुविधा के नशे में धुत्त
धीरे धीरे सब हो रहा है लुप्त
मेल थी सुस्त
ई-मेल है चुस्त
मेल थी महंगी
ई-मेल है मुफ़्त
Posted by Rahul Upadhyaya at 11:49 PM
आपका क्या कहना है??
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Labels: digital age, misc
Saturday, August 1, 2009
जी-पी-एस
मैं
अच्छी तरह से वाकिफ़ हूँ
शहर के चप्पे-चप्पे से
हर ऊँचे-नीचे
टेढ़े-मेढ़े रास्ते से
एवेन्यू से, स्ट्रीट से
पार्कवे से, कल-डि-सेक से,
हर कोर्ट से,
हर लेन से,
मैं अच्छी तरह से वाकिफ़ हूँ
कौन सी सड़क कहाँ जा कर
चुपचाप अपना नाम बदल लेती है
चेरी से जैम्स
और सहाली से 228th बन जाती है
मैं यह भी जानता हूँ कि
कौन सी सड़क खत्म होने पर भी खत्म नहीं होती
और दुबारा जन्म ले लेती है झील के उस पार
मैं
अच्छी तरह से वाकिफ़ हूँ
शहर के चप्पे-चप्पे से
लेकिन फिर भी
जी-पी-एस साथ लेकर चलता हूँ
इसलिए नहीं कि वो मुझे रास्ता बता सके
बल्कि इसलिए कि
जब वो कहे - यहाँ मुड़ो
मैं न मुड़ूँ
और
कुछ क्षणों के लिए
महसूस कर सकूँ
कि अपनी मर्जी का मालिक होना
किसे कहते हैं
सिएटल,
1 अगस्त 2009
Posted by Rahul Upadhyaya at 1:18 AM
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Labels: August Read, digital age, intense, March2, MM, new, relationship, TG
बीयर ज्ञान
मैंने बीयर नहीं पी आज तक
कि कभी गाड़ी पकड़ गई रफ़्तार
तो कोई पुलिसवाला रोक के
कर न ले मुझे गिरफ़्तार
और उन साहब को देखिए
वो क्या हुए गिरफ़्तार
कि व्हाईट हाऊस में बुलाकर
बीयर पिला रही सरकार
पढ़त-पढ़त अख़बार के
मुझे भी मिल गया ज्ञान
कि लड़ने-भिड़ने के बाद ही
जग से मिलता है सम्मान
सिएटल,
1 अगस्त 2009
Wednesday, July 29, 2009
एक तरफ़ है नीरज, एक तरफ़ हूँ मैं
एक तरफ़ है नीरज
एक तरफ़ हूँ मैं
वे हैं सम्पूर्ण
उनका पूरक हूँ मैं
पास-पड़ोस में दुश्मन
दूर-दराज हैं दोस्त
किस्मत का मारा
मुशर्रफ़ हूँ मैं
तारीफ़ कभी
कोई रिंद न करे
हलक से न उतरे
वो बर्फ़ हूँ मैं
लिखता वही
जो लिखना मुझे
इस्लाह कर के नहीं
लिखता हर्फ़ हूँ मैं
दीवान छपवाऊँ
इतना दीवाना नहीं
ब्लाग पे ही लिख के
रहता संतुष्ट हूँ मैं
=====================
रिंद = पीनेवाला;हलक = गला;
इस्लाह = किसी काम में होनेवाली त्रुटियाँ,भूलों आदि को दूर करना। सुधारना। जैसे-उर्दू के नौसिखुए कवि पहले अपनी रचनाएँ उस्ताद को दिखाकर उनसे इस्लाह लेते हैं। (http://pustak.org/bs/home.php?mean=11834)
हर्फ़ = अक्षर
[यह रचना दो बातों से प्रेरित हो कर लिखी गई है।
पहली बात। हमारे शहर, सिएटल, की मासिक गोष्ठी को ढाई साल हो चुके हैं। गोष्ठी को एक नई दिशा, एक नया आयाम देने के प्रयास के तहत, यह निर्धारित किया गया है कि हम किसी प्रतिष्ठित कवि की रचनाओं में से अपनी पसंद की चुनें और उसे गोष्ठी में सुनाए। उद्देश्य है कि निराला, पंत, दिनकर आदि के अलावा अन्य कवियों की रचनाओं से भी हमारा परिचय हो, और वो भी उनके जीवनकाल में। और अगर कवि से सम्पर्क सम्भव हो सके तो हम उपस्थित व्यक्तियों द्वारा एक हस्ताक्षिरत पत्र भी उन्हें भेज सकते हैं।
अगस्त माह के कवि चुने गए हैं - श्री गोपालदास नीरज - जिनसे सब नीरज के नाम से परिचित हैं। उन्होंने कई फ़िल्मों के गीत लिखे हैं। गीतों की सूची बहुत लम्बी है। कुछ गीत इस लिंक पर पढ़े जा सकते हैं:
http://tinyurl.com/nirajsongs
उनकी कुछ कविताएँ इस लिंक पर जा कर पढ़ी जा सकती हैं:
http://tinyurl.com/nirajpoems
यदि आपको पुस्तकों में दिलचस्पी है तो इस लिंक पर देखें:
http://tinyurl.com/nirajbooks
दूसरी बात। हर गोष्ठी में एक स्थानीय कवि चुना जाएगा और उसकी कविताओं की आलोचना भी की जाएगी ताकि कवि को कुछ सीखने-समझने-सुधरने का अवसर मिलें। और अगस्त महीने में मेरी कविताओं की आलोचना करना तय हुआ है। ]
Posted by Rahul Upadhyaya at 12:45 AM
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Thursday, July 23, 2009
तीन कविताएँ - एक संदर्भ
कविताएँ अलग-अलग समय पर लिखी गई थीं, लेकिन संदर्भ एक ही है - वह घटना जिसकी 40 वीं वर्षगांठ इन दिनों मनाई जा रही है।
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मृगतृष्णा
वो एक पत्थर
जिस पर आँखें गड़ी थी
जिससे हमारी उम्मीदें जुड़ी थी
जैसे का तैसा बेजान पड़ा था
जैसा किसी कारीगर ने गढ़ा था
रुकते थे सब
कोई ठहरता नहीं था
जैसा था सोचा
ये तो वैसा नहीं था
था मील का पत्थर
ये तो गंतव्य नहीं था
चाँद से भी ऐसे ही उम्मीदें जुड़ी थी
चाँद पर भी ऐसे ही आंखे गड़ी थी
आज मात्र एक मील का पत्थर
तिरस्कृत सा पड़ा है पथ पर
========================
वापसी पे मनते दीपोत्सव नहीं
वो घड़ी
वो लम्हा
वो क्षण
मानव के इतिहास में है
स्वर्ण अक्षरों में दर्ज
मस्तिष्क में हैं अंकित
अभी तक उस जूते की छाप
जिसने एक ही कदम में
लिया था ब्रह्माण्ड को नाप
अर्घ देती थी जिसे
शादीशुदा नारी सभी
शिव की शोभा जिसे
कहते थे ज्ञानी-ध्यानी सभी
अच्छी तरह से याद है
दुनिया को
अभी तक वो घड़ी
जब जूतों तले रौंदी गई थी उसकी ज़मीं
लेकिन
वापसी की घड़ी
ठीक से याद नहीं
जो होता है दूर
वो लगता है चाँद
जो होता है पास
नहीं लगता है खास
जो होता है दूर
उसकी आती है याद
जो होता है पास
वो लगता है भार
त्रेतायुग और कलियुग में फ़र्क यही
जानेवाले किये जाते हैं सहर्ष विदा
वापसी पे मनते दीपोत्सव नहीं
========================
धुआँ करे अहंकार
दूर से देते अर्घ थे
उतरें तो रखें पाँव
ये कैसा दस्तूर है?
करे शिकायत चाँद
दूर से लगते नूर थे
पास गए तो धूल
रूप जो बदला आपने
हम भी बदले हज़ूर
पास रहें या दूर रहें
रहें एक से भाव
ऐसे जीवन जो जिए
करें न पश्चाताप
हर दस्तूर दुरूस्त है
'गर गौर से देखें आप
जहाँ पे जलती आग है
धुआँ भी चलता साथ
पल पल उठते प्रश्न हैं
हर प्रश्न इक आग
उत्तर उनका ना दिखे
धुआँ करे अहंकार
ज्यों-ज्यों ढलती उम्र है
ठंडी पड़ती आग
धीरे-धीरे आप ही
छट जाए अंधकार
जोगी निपटे आग से
करके जाप और ध्यान
हम निपटते हैं तभी
हो जाए जब राख
Posted by Rahul Upadhyaya at 11:21 AM
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Sunday, July 12, 2009
जो गुज़र गया वो गुज़श्ता है
जो गुज़र गया वो गुज़श्ता है
जो हाथ में है वो गुलदस्ता है
जिसे कहता साक़ी ज़माना था
उसे हम कहते आज बरिस्ता है
जो प्यार करे और घाव न दे
वो आदमी नहीं फ़रिश्ता है
रिश्तों से बड़ा कोई नासूर नहीं
नासूर तो केवल रिसता है
देख चाँद समंदर कुछ यूँ बौराया
कि आज भी रेत पे सर घिसता है
है गरीब मगरिब मशरिक नहीं
जो कागज़ की थाल परसता है
====================
गुज़श्ता = भूतकाल
बरिस्ता = Barista
मगरिब = पश्चिम
मशरिक = पूरब
Posted by Rahul Upadhyaya at 4:36 PM
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Wednesday, July 1, 2009
आप जाने की ज़िद न करो
यूँही डॉलर कमाते रहो
हाय, मर जाएंगे
हम तो लुट जाएंगे
ऐसी बातें किया न करो
खुद ही सोचो ज़रा, क्यों न रोकेंगे हम?
जो भी जाता है रो-रो के आता है फिर
आपको अपनी क़सम जान-ए-जां
बात इतनी मेरी मान लो
आप जाने की ...
कद्र करते हैं देश की बहुत हम मगर
चंद डॉलर यही हैं जिनसे कुछ शान है
इनको खोकर कहीं, जान-ए-जां
उम्र भर न तरसते रहो
आप जाने की ...
कितना कुछ पाया हमने आ के यहाँ
कार और घर की चाबी भी है हाथ में
कल भटकना क्यूँ दर-दर जान-ए-जां
बात मानो यहीं पे रहो
आप जाने की …
सिएटल 425-898-9325
1 जुलाई 2009
(फ़ैयाज़ हाशमी से क्षमायाचना सहित)
Posted by Rahul Upadhyaya at 11:49 PM
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Friday, June 26, 2009
पिछले दो दिन से
पिछले दो दिन से
मेरा मोबाईल फोन
बंद पड़ा है
मैसेंजर पर स्टेटस
इनविज़िबल है
और खुफ़िया एकाउंट की
ईमेल चेक नहीं की है
इन सब की वजह सिर्फ़ एक है:
गवर्नर सेनफ़र्ड का
फूट-फूट कर बयान देना
सिएटल 425-445-0827
26 जून 2009
==================
मैसेंजर = messenger
इनविज़िबल = invisible
एकाउंट = account
चेक = check
Posted by Rahul Upadhyaya at 1:31 PM
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Thursday, June 4, 2009
जबसे वो कमाने लगे हैं
जबसे वो कमाने लगे हैं
आँखें हमें दिखाने लगे हैं
गुरूर तो कुछ पहले भी था
अब धौंस भी जमाने लगे हैं
डर है कहीं बिगड़ जाए न वो
बनाने में जिसे ज़माने लगे हैं
अहसान जो किए थे हमने उनपे
धीरे-धीरे सब याद आने लगे हैं
वो फोन भी नहीं उठाते हमारा
हम नखरें उनके उठाने लगे हैं
घोलते थे सांसें सांसों में दो दिल
अब तकियों में मुँह छुपाने लगे हैं
कब तक करेगी फ़्रेम हिफ़ाज़त बिचारी
तस्वीरों से सब रंग अब जाने लगे हैं
सिएटल 425-445-0827
4 जून 2009
Posted by Rahul Upadhyaya at 1:55 PM
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Saturday, May 30, 2009
मिमिया रहा है काव्य
चीख रहे हैं चित्र सारे
मिमिया रहा है काव्य
रंगों की नुमाईश है
साहित्य का दुर्भाग्य
शब्द के बल पर जो कह देती थी
अपने मन की बात
पिक्सल-पिक्सल मर रही है
फोटोशॉप्पर के हाथ
माँ एक ऐसा शब्द है
जिसमें सैकड़ो अर्थ निहित
फोटो जोड़ा साथ में
अर्थ हुए सीमित
जिसे पढ़ के सुन के होते थे
पाठक-श्रोता भाव-विभोर
पलट-पलट के ग्लॉसी पन्ने
हो रहे हैं बोरम्-बोर
एक हज़ार शब्द के बराबर
होता होगा एक अकेला चित्र
लेकिन एक भी ऐसा चित्र नहीं
जो समझा सके कबीर का कवित्त
बड़ा हुआ तो क्या हुआ
जैसे पेड़ खजूर
लिखते आज कबीर तो क्या
साथ में होता पेड़ हुज़ूर?
सिएटल 425-445-0827
30 मई 2009
======================
पिक्सल = pixel ; फोटोशॉप्पर = photoshopper;
ग्लॉसी = glossy; बोर = bore
Posted by Rahul Upadhyaya at 10:38 AM
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Friday, May 29, 2009
जय रघुबीर
बात-बात पर आप क्यूँ
मचा रहें उत्पात
पहले सम्हालिए देवता
फिर करें नेताओं की बात
जिन्हें आप हैं पूजते
वे भी करते थे भाई-भतीजावाद
कैकयी की एक ज़िद पर
कर दिया अयोध्या बर्बाद
कैकयी जिन्हें थी चाहतीं
वे ही बने युवराज
सोनिया जिन्हें हैं चाहतीं
क्यों न करें वे राज?
सोनिया की भारतीयता पर
उचित नहीं कोई प्रहार
कैकयी भी नहीं थीं रघुवंश की
वे थीं एक पराई नार
न कृष्ण ने पूजा राम को
न अर्जुन गए राम-मंदिर
फिर भी आप आज भी
क्यों भजते हैं जय रघुबीर?
त्रेतायुग हो, द्वापर युग हो
या फिर हो सतयुग
हर युग का अपना एक ढंग है
हर युग का है एक रूप
समय के साथ जो चलते रहें
पहनें उन्होंने हार
लकीर के फ़कीर जो बने रहें
उन्हें मिली है हार
सिएटल 425-445-0827
29 मई 2009
Wednesday, May 27, 2009
टर्मिनल पेशेंट
कुत्ते हैं
लेकिन एक भी कुत्ता
यहाँ भोंकता नहीं है
पेड़ हैं
लेकिन एक भी पेड़
यहाँ कचरा करता नहीं है
शांति और सफ़ाई के
इस वातावरण में
मैं रहता हूँ ऐसे
जैसे अस्पताल में
रहता हो कोई
खाता हूँ
पीता हूँ
पढ़ता हूँ
सोता हूँ
मनोरंजन के लिए
कभी-कभार देख लेता हूँ टी-वी
बमबारी की ख़बरें देख कर
ख़ुद को रोक पाता नही हूँ
उठाता हूँ रिमोट
और बदल देता हूँ चैनल
मैं
कचरे के डब्बे में बंद
एक सड़ता हुआ पत्ता नहीं हूँ
मैं
मालकिन की गोद में
सोता हुआ एक कुत्ता नहीं हूँ
मैं हूँ इन सबसे अलग
मैं हूँ इन सबसे अलग
एक टर्मिनल पेशेंट
ये अलग बात है कि
दिखने में ऐसा
मैं लगता नहीं हूँ
सिएटल 425-445-0827
27 मई 2009
=======================
टर्मिनल पेशेंट =terminal patient;
टी-वी = TV; रिमोट = remote ; चैनल = channel
Posted by Rahul Upadhyaya at 4:56 PM
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Friday, May 22, 2009
मैं कायर तो नहीं
मगर जबसे घर छोड़ा मैंने
तबसे मुझमें कायरता आ गई
मैं गद्दार तो नहीं
मगर जबसे घर छोड़ा मैंने
तबसे मुझमें गद्दारी आ गई
डॉलर का नाम मैंने सुना था मगर
डॉलर क्या है ये मुझको नहीं थी ख़बर
मैं तो चिपका रहा इससे जोंक की तरह
दुम हिलाता रहा पालतू कुत्तों की तरह
मैं गरीब तो नहीं
मगर जबसे घर छोड़ा मैंने
तबसे मुझमें दीनता आ गई
सोचता हूँ अगर मैं बुरा मानता
हाथ अपने फ़ैला कर न यूँ भागता
घर पे रहता अन्य परिजनों की तरह
दर-दर न भटकता भीखमंगों की तरह
मैं बेशर्म तो नहीं
मगर जबसे घर छोड़ा मैंने
तबसे मुझमें बेशर्मी आ गई
रात-दिन फ़्री के चक्कर में रहता हूँ मैंचाराने-आठाने के कूपन लिए फ़िरता हूँ मैं
लाईब्रेरी जा के डी-वी-डी लाता हूँ मैं
मंदिर जा के खाना खा आता हूँ मैं
मैं कंजूस तो नहीं
मगर जबसे घर छोड़ा मैंने
तबसे मुझमें कंजूसी आ गई
सिएटल 425-898-9325
22 मई 2009
(आनंद बक्षी से क्षमायाचना सहित)
===========================================
डॉलर = dollar; कूपन = coupon; फ़्री = free; लाईब्रेरी = library; डी-वी-डी = DVD
Posted by Rahul Upadhyaya at 9:52 AM
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Thursday, May 21, 2009
अडवाणी जी की अडवांस्ड ऐज
अडवाणी जी की अडवांस्ड ऐज
रह गई मलती हाथ
सोनिया गाँधी जीत गई
हिला-हिला कर हाथ
आठ घंटे जो काम करे
और दो मिनट में पूजा-पाठ
ऐसे कर्मरत इंसान को
कभी धर्म सके न बाँट
हिंदू-मुस्लिम-सिख-ईसाई का
सब का एक ही ख़्वाब
खाने को रोटी मिले
और मिले हाई-इनकम जॉब
आई-पॉड को देखिए
मिटा रहा सारे भेद
पंडित-मौलवी-पादरी
सब को चाहिए एक
बन सके तो बनिए
आई-पॉड के जैसे दो तार
जिन्हें दलित-ब्राह्मण-बनिए
सब खुशी-खुशी करें स्वीकार
सिएटल 425-898-9325
21 मई 2009
===================================
अडवांस्ड ऐज = advanced age
हाई-इनकम जॉब = high-income job
आई-पॉड = iPod
Posted by Rahul Upadhyaya at 11:12 AM
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Saturday, May 9, 2009
मैं अपनी माँ से दूर
मैं अपनी माँ से दूर अमेरिका में रहता हूँ
बहुत खुश हूँ यहाँ मैं उससे कहता हूँ
हर हफ़्ते
मैं उसका हाल पूछता हूँ
और अपना हाल सुनाता हूँ
सुनो माँ,
कुछ दिन पहले
हम ग्राँड केन्यन गए थे
कुछ दिन बाद
हम विक्टोरिया-वेन्कूवर जाएगें
दिसम्बर में हम केन्कून गए थे
और जून में माउंट रेनियर जाने का विचार है
देखो न माँ,
ये कितना बड़ा देश है
और यहाँ देखने को कितना कुछ है
चाहे दूर हो या पास
गाड़ी उठाई और पहुँच गए
फोन घुमाया
कम्प्यूटर का बटन दबाया
और प्लेन का टिकट, होटल आदि
सब मिनटों में तैयार है
तुम आओगी न माँ
तो मैं तुम्हे भी सब दिखलाऊँगा
लेकिन
यह सच नहीं बता पाता हूँ कि
20 मील की दूरी पर रहने वालो से
मैं तुम्हें नहीं मिला पाऊँगा
क्यूंकि कहने को तो हैं मेरे दोस्त
लेकिन मैं खुद उनसे कभी-कभार ही मिल पाता हूँ
माँ खुश है कि
मैं यहाँ मंदिर भी जाता हूँ
लेकिन
मैं यह सच कहने का साहस नहीं जुटा पाता हूँ
कि मैं वहाँ पूजा नहीं
सिर्फ़ पेट-पूजा ही कर पाता हूँ
बार बार उसे जताता हूँ कि
मेरे पास एक बड़ा घर है
यार्ड है
लाँन में हरी-हरी घास है
न चिंता है
न फ़िक्र है
हर चीज मेरे पास है
लेकिन
सच नहीं बता पाता हूँ कि
मुझे किसी न किसी कमी का
हर वक्त रहता अहसास है
न काम की है दिक्कत
न ट्रैफ़िक की है झिकझिक
लेकिन हर रात
एक नए कल की
आशंका से घिर जाता हूँ
आधी रात को नींद खुलने पर
घबरा के बैठ जाता हूँ
मैं लिखता हूँ कविताएँ
लोगो को सुनाता हूँ
लेकिन
मैं यह कविता
अपनी माँ को ही नहीं सुना पाता हूँ
लोग हँसते हैं
मैं रोता हूँ
मैं अपनी माँ से दूर अमेरिका में रहता हूँ
बहुत खुश हूँ यहाँ मैं उससे कहता हूँ
Posted by Rahul Upadhyaya at 11:40 PM
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Labels: Anatomy of an NRI, August Read, intense, news, nri, relationship
Friday, May 8, 2009
मैं जहाँ रहूँ
किसी से कहूँ, मैं जो भी कहूँ, ये सुन लेता हर बात है
कहने को साथ अपने एक दुनिया चलती है
पर खुद के सेल-फोन में उलझी ही रहती है
लिए फोन कान पे, लिए फोन हाथ में …
कहीं तो कोई पत्नी से डर-डर के बात करता है
कहीं तो कोई प्रेयसी से मीठी-मीठी बात कहता है
कहीं पे कोई चिल्ला-चिल्ला के तू-तू मैं-मैं करता है
कहीं पे कोई दबी ऊंगलियों से चुपचाप एस-एम-एस करता है
कहने को साथ अपने …
कहीं तो कोई हर दो मिनट में ई-मेल चेक करता है
कहीं तो कोई हेड-सेट से दिन भर गाने सुनता है
कोई पार्टी में जा के भी ब्लू टूथ से चिपका रहता है
आ कर मेरे घर किसी और से ही बात करता रहता है
कहने को साथ अपने …
सिएटल 425-445-0827
8 मई 2009
(जावेद अख़्तर से क्षमायाचना सहित)
Posted by Rahul Upadhyaya at 6:42 PM
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Monday, May 4, 2009
स्वाइन फ़्लू
शौक से बनाया था हमने चमन में घर
हाथ फूल गए जब पड़ी केंचुओं पे नज़र
एच-वन का टेंशन, एच-वन-एन-वन का डर
ले-ऑफ़ है सर पर, और बिके न घर
कभी सुअर मारे, कभी शेयर गिरे
कदम-कदम पर गाज गिरे
रातो-रात मात दे गया स्वाइन फ़्लू
शिकारी को शिकार कर गया बेआबरू
कर दी है बोलती कुछ इस तरह से बंद
कि रहता है मुँह पे अब सदा पैबंद
हाथ धो के ऐसे पीछे कुछ रोग पड़े
कि हाथ धो-धो के परेशां हैं बच्चे बड़े
वैसे भी मिलने-जुलने से कतराते थे लोग
अब तो हाथ मिलाने से भी घबराते हैं लोग
सिएटल 425-445-0827
4 मई 2009
=============================
स्वाइन फ़्लू = swine flu; एच-वन = H1;
टेंशन = tension; एच-वन-एन-वन = H1N1 ;
ले-ऑफ़ = lay off;
Wednesday, April 29, 2009
प्यार का रंग न बदला
प्यार का रंग न बदला
इज़हार का ढंग न बदला
आँखों में वही खुशबू
होठों पे वही थिरकन
सांसों में वही गर्मी
सीने में वही धड़कन
क्षण-क्षण वही हैं लक्षण
कुछ भी तो नहीं बदला
प्यार का रंग न बदला
इकरार का ढंग न बदला
दबा के दाँतों ऊँगली
ला के गालों पे लाली
अब भी जताती है प्यार
प्यार जताने वाली
प्यार का प्यारा इशारा
अब तक नहीं है बदला
प्यार का रंग न बदला
इंतज़ार का ढंग न बदला
दरवज्जे पे गाड़े अँखियाँ
रस्ता तकती है गोरी
अब भी रातों को जागकर
तारें गिनती है गोरी
पिया मिलन का सपना
आज भी नहीं है बदला
प्यार का रंग न बदला
तकरार का ढंग न बदला
अब भी ताने है कसती
अब भी कुट्टी है करती
नाक पे रख के गुस्सा
पगली अब भी है लड़ती
प्यार का प्यारा झगड़ा
अब भी नहीं है बदला
प्यार का रंग न बदला
संसार का ढंग न बदला
अब भी जलती है दुनिया
अब भी पिटते हैं मजनू
प्यार मिटाने वाले
अब भी मिलते हैं हर सू
प्यार प्यार ही बाँटे
प्यार न लेता बदला
ज़माना जो चाहे कर ले
प्यार न जाए बदला
सिएटल 425-445-0827
29 अप्रैल 2009
Posted by Rahul Upadhyaya at 5:23 PM
आपका क्या कहना है??
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Friday, April 24, 2009
शुक्र करो, मैं अवतार नहीं हूँ
अंतरिक्ष यात्री:
शुक्र करो, मैं अवतार नहीं हूँ
वरना हर रात अमावस होती
एक महिला का उद्धार तो होता
पर सारे विश्व की त्रासदी होती
एन-आर-आई:
शुक्र करो, मैं अवतार नहीं हूँ
वरना अपने ध्येय में व्यस्त मैं रहता
पिता के दिवंगत हो जाने पर भी
जा कर उनका दाह-संस्कार न करता
बेरोज़गार:
शुक्र करो, मैं अवतार नहीं हूँ
वरना 13 साल तक काम न करता
मान के ले-ऑफ़ को वनवास
हाथ पर हाथ धरे ही रहता
अमरीका के राष्ट्रपति:
शुक्र करो, मैं अवतार नहीं हूँ
वरना दो भाईयों की फ़ूट का लाभ उठाता
दूसरे देश के सैनिक ही खपते
अपने देश का एक इंसान न मरता
पति:
शुक्र करो, मैं अवतार नहीं हूँ
वरना कमाती पत्नी को तलाक मैं देता
आ कर धोबी की बात में यारो
सारी अर्थव्यवस्था का विनाश मैं करता
सिएटल 425-445-0827
24 अप्रैल 2009
Posted by Rahul Upadhyaya at 11:44 AM
आपका क्या कहना है??
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Thursday, April 23, 2009
हमने देखी थी
आगे बढ़ कर उसे मिटाने का प्रयास न किया
सिर्फ़ संडास है कह के चले आए हम
हाथ तो धोए पर संडास साफ़ न किया
हम देशभक्त नहीं, करते देश से प्यार नहीं
थोड़ी दौलत, थोड़ी सहूलियत पे फ़िदा होते हैं
चाहे हिंदू हो, मुसलमां हो, या हो धर्म कोई
बन के एन-आर-आई, देश से विदा होते हैं
कभी बच्चे, कभी बीवी, कभी कैरियर की फ़िक्र
कभी किसी और ही स्वार्थ में डूबे रहते हैं
खास कुछ करते नहीं, हाँकते जोरो की मगर
एक एक बात में दस दस झूठ छुपे रहते हैं
सिएटल 425-445-0827
23 अप्रैल 2009
(गुलज़ार से क्षमायाचना सहित)
Posted by Rahul Upadhyaya at 5:39 PM
आपका क्या कहना है??
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Labels: Anatomy of an NRI, Gulzar, new, nri, parodies
Wednesday, April 22, 2009
घर छोड़ के हम आए हैं
तो रहना ही पड़ेगा
रह-रह के अपने आप को
छलना ही पड़ेगा
वो घर भी था अपना ही घर
ये घर भी है अपना
कह-कह के यही बात हमें
सच्चाई से है बचना
हर स्वार्थ को नकाब से
ढकना ही पड़ेगा
क्या सोचा था, क्या पाएंगे,
क्या पा के रहेंगे?
जो मांगा वो मिल जाए
तो क्या लौट सकेंगे?
हर रोज़ हमें ख़्वाब नया
बुनना ही पड़ेगा
क्या सोचते हैं, चाहते हैं
किस से कहेंगे?
इतने बड़े जहाँ में
किसे अपना कहेंगे?
मन मार के तनहाई में
घुटना ही पड़ेगा
जो चाँद पूजे, पत्थर पूजे
वो धर्म नहीं है
जो धन दे दे, धर्म वही,
कर्म वही है
फल पाने के लिए, जड़ों से
हटना ही पड़ेगा
है आज यहाँ काम
यहाँ नाम है अपना
कल को कोई
पूछेगा नहीं नाम भी अपना
डर-डर के हमें रात-दिन
खटना ही पड़ेगा
जाए न जाए कहीं
जग से जाएंगे
जाएंगे जग से लेकिन
सो के जाएंगे
हर ख़्वाब को नींद में
मिटना ही पड़ेगा
सिएटल 425-445-0827
28 मार्च 2009
(शकील बदायुनी से क्षमायाचना सहित)
Posted by Rahul Upadhyaya at 12:11 AM
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Monday, April 20, 2009
वापसी पे मनते दीपोत्सव नहीं
वो घड़ी
वो लम्हा
वो क्षण
मानव के इतिहास में है
स्वर्ण अक्षरों में दर्ज
मस्तिष्क में हैं अंकित
अभी तक उस जूते की छाप
जिसने एक ही कदम में
लिया था ब्रह्माण्ड को नाप
अर्घ देती थी जिसे
शादीशुदा नारी सभी
शिव की शोभा जिसे
कहते थे ज्ञानी-ध्यानी सभी
अच्छी तरह से याद है
दुनिया को
अभी तक वो घड़ी
जब जूतों तले रौंदी गई थी उसकी ज़मीं
लेकिन
वापसी की घड़ी
ठीक से याद नहीं
जो होता है दूर
वो लगता है चाँद
जो होता है पास
नहीं लगता है खास
जो होता है दूर
उसकी आती है याद
जो होता है पास
वो लगता है भार
त्रेतायुग और कलियुग में फ़र्क यही
जानेवाले किये जाते हैं सहर्ष विदा
वापसी पे मनते दीपोत्सव नहीं
सिएटल 425-445-0827
20 अप्रैल 2009
Posted by Rahul Upadhyaya at 11:49 PM
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Saturday, April 18, 2009
धुआँ करे अहंकार
दूर से देते अर्घ थे
उतरें तो रखें पाँव
ये कैसा दस्तूर है?
करे शिकायत चाँद
दूर से लगते नूर थे
पास गए तो धूल
रूप जो बदला आपने
हम भी बदले हज़ूर
पास रहें या दूर रहें
रहें एक से भाव
ऐसे जीवन जो जिए
करें न पश्चाताप
हर दस्तूर दुरूस्त है
'गर गौर से देखें आप
जहाँ पे जलती आग है
धुआँ भी चलता साथ
पल पल उठते प्रश्न हैं
हर प्रश्न इक आग
उत्तर उनका ना दिखे
धुआँ करे अहंकार
ज्यों-ज्यों ढलती उम्र है
ठंडी पड़ती आग
धीरे-धीरे आप ही
छट जाए अंधकार
जोगी निपटे आग से
करके जाप और ध्यान
हम निपटते हैं तभी
हो जाए जब राख
सिएटल 425-445-0827
18 अप्रैल 2009
==========================
अर्घ = पुं. [सं.√अर्ह(पूजा)+घञ्,कुत्व] 1.कुशाग्र, जब तंडुल, दही दूध और सरसों मिला हुआ जल, जो देवताओं पर अर्पित किया जाता है। 2.किसी देवी-या देवता के सामने पूज्य भाव से जल गिराना या अंजुली में भरकर जल देना। 3.अतिथि को हाथ-पैर धोने के लिए दिया जाने वाला जल।
Monday, April 13, 2009
इंडिया में ऐसा कहाँ लगता अजीब है
कि नोट से नेता सीट लेता खरीद है
डूबे ही रहते हैं वोटर सारे
उनको न कोई माझी पार उतारे
हर पाँच साल फिर फ़ूटता नसीब है
गली-गली घूमते हैं गुंडे-हत्यारे
उनकी ही 'जय हो' के लगते हैं नारे
भलामानुस सदा चढ़ता सलीब है
आज है जिनके ये कट्टर दुश्मन
कल को उन्हीं से जोड़ें ये गठबंधन
राजनीति का एक अपना गणित है
पार्टी है नाम की और चमचे हैं नेता
होता वही जो चाहें माँ और बेटा
जनतंत्र का धीरे-धीरे बुझता प्रदीप है
भाग्य भरोसे जीती जनता बिचारी
जीती कभी न वो हमेशा है हारी
भाग्य विधाता कर देता मट्टी पलीद है
कर्मों की दुनिया के फ़ंडे निराले
कब किसको ये मारे किसको बचा ले
जनम-जनम की यहाँ कटती रसीद है
दूर-दूर रहते हैं पासपोर्ट वाले
उनमें से कोई आ के वोट न डाले
उनकी वजह से देश का उजड़ा भविष्य है
आपस में लड़ते हैं दिमाग वाले
एकजुट हो के यदि हाथ मिला ले
फिर देखो कैसे उल्लू बनता वज़ीर है
सिएटल 425-445-0827
13 अप्रैल 2009
(आनंद बक्षी से क्षमायाचना सहित)
============================
इंडिया = India; वोटर = voter; सलीब = सूली
फ़ंडे = fundaes
Posted by Rahul Upadhyaya at 9:55 PM
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Labels: Anand Bakshi, India, news, parodies
Friday, April 10, 2009
न वोटर हूँ, न लीडर हूँ
न वोटर हूँ, न लीडर हूँ
उछालता सब पर कीचड़ हूँ
निंदा करने की 'बग' है मुझमें
कहता इसको 'फ़ीचर' हूँ
देश की जनता को कहता हूँ पागल
ख़ुद को बताता मैं हटकर हूँ
इसको नहीं, तुम मत उसको देना
ई-मेल से देता नसीहत हूँ
समस्याओं से लड़ने का उपदेश हूँ देता
और स्वयं भटकता दर-दर हूँ
देश के हित का ढोल हूँ पीटता
और बन बैठा विदेशी सिटिज़न हूँ
सत्ता बदलना चाहूँ किंतु
घर को नहीं होता रूखसत हूँ
कहने को एक एन-आर-आई हूँ लेकिन
पतली गली से भागा गीदड़ हूँ
सिएटल 425-445-0827
10 अप्रैल 2009
============
'बग' = bug; 'फ़ीचर' = feature;
सिटिज़न = citizen; एन-आर-आई = NRI;
Posted by Rahul Upadhyaya at 10:57 PM
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Friday, April 3, 2009
पंचलाईन #4
जो जग में लाता है उसे पिता कहते हैं
जो जग चलाता है उसे ईश्वर कहते हैं
जो जग लाता है उसे वेटर कहते हैं
जो जग जाता है उसे सजग कहते हैं
जो फल पाता है उसे सफल कहते हैं
जो सुर में गाता है उसे ससुर कहते हैं
जो गीत गाता है उसे सिंगर कहते हैं
जो गुण गाता है उसे फ़ैन कहते हैं
जो गुनगुनाता है उसे गीज़र कहते हैं
जो देखता है उसे दर्शक कहते हैं
जो सुनता है उसे श्रोता कहते हैं
जो बकता है उसे वक़्ता कहते हैं
जो पढ़ता है उसे पाठक कहते हैं
जो छापता है उसे प्रकाशक कहते हैं
जो छप जाता है उस पर लेखक लेखक होने का शक़ करते हैं
जो राष्ट्रपति नहीं बन सकता वो उपराष्ट्रपति बन जाता है
जो कप्तान नहीं बन सकता वो उपकप्तान बन जाता है
जो भौंक नहीं सकता वो उपभोक्ता बन जाता है
सिएटल । 425-445-0827
3 अप्रैल 2009
===============
जग = jug; वेटर = waiter; सिंगर = singer; फ़ैन = fan;
गीज़र = geyser; water heater
Posted by Rahul Upadhyaya at 1:04 AM
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Sunday, March 29, 2009
नव-वर्ष - 1 जनवरी को या चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को?
कहने लगे अग्रज मुझसे
तुम तो पूरे अंग्रेज़ हो
अपनी ही संस्कृति से
करते परहेज़ हो
1 जनवरी को ही
मना लेते हो नया साल
जबकि चैत्र मास में
बदलता है अपना साल
तुम जैसे लोगो की वजह से ही
आज है देश का बुरा हाल
तुम में से एक भी नहीं
जो रख सके अपनी धरोहर को सम्हाल
मैंने कहा
आप मुझसे बड़े हैं
मुझसे कहीं ज्यादा
लिखे पढ़े हैं
लेकिन अपनी गलतियाँ
मुझ पे न थोपिए
अपने दोष
मुझ में न खोजिए
हिंदू कैलेंडर आपको तब-तब आता है याद
जब जब मनाना होता है कोई तीज-त्योहार
जब जब मनाना होता है कोई तीज-त्योहार
आप फ़टाक से ठोंक देते हैं चाँद को सलाम
लेकिन स्वतंत्रता दिवस
क्यूँ मनाते हैं 15 अगस्त को आप?
और गणतंत्र दिवस भी
क्यूँ मनाते हैं 26 जनवरी को आप?
जब आप 2 अक्टूबर को
मना सकते हैं राष्ट्रपिता का जन्म
तो 1 जनवरी को क्यूँ नहीं
मना सकते हैं नव-वर्ष हम?
पहले जाइए और खोजिए
इन सवालों के जवाब
फिर आइए और दीजिए
हमें भाषण जनाब
मेरी बात माने
तो एक काम करें
जिसको जब जो मनाना है
उसे मना ना करें
मना कर के
किसी का मन खट्टा ना करें
सिएटल 425-445-0827
29 मार्च 2009
Posted by Rahul Upadhyaya at 11:54 PM
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Wednesday, March 25, 2009
टाटा की नेनो
लाएंगे नेनो हम भी एक लाख में
चार चांद लगाएंगे टाटा की साख में
नैनों में खुमार
है नेनो का आज
निहार रहे सब
छोड़ काम काज
ज़िक्र है इसका हर एक बात में
लाएंगे नेनो हम भी एक लाख में
हमने कहा इसे जाने दो
हम हैं बस जानें दो
पत्नी कहे नो, नो, नो
पड़ोसी ला रहे हैं नेनो
होंगे शामिल हम भी इस भेड़ चाल में
लाएंगे नेनो हम भी एक लाख में
रखेंगे कहाँ?
चलाएंगे कहाँ?
गली गूंचो में
फ़साएंगे कहाँ?
सोचेंगे समझेंगे सब ये बाद में
लाएंगे नेनो हम भी एक लाख में
कुछ इस तरह
हमारी सोसायटी चले
कि नाक न कटे
चाहे फ़ेंफ़ड़े जले
मंजूर हैं छुपाना नाक हमें 'मास्क' में
लाएंगे नेनो हम भी एक लाख में
विकास का सितारा
टिमटिमाया है दोबारा
हरियाली और रास्ते के बीच
फ़ंसा है बिचारा
मुश्किल से खिले हैं फूल भारत की शाख में
लाएंगे नेनो हम भी एक लाख में
भाईयो और बहनो
देवियो और सज्जनो
हम और आप
चलाएंगे नेनो
तर्क वितर्क जाए सब भाड़ में
लाएंगे नेनो हम भी एक लाख मे.
... और 5 साल बाद दो सूरतें हो सकती हैं:
अ.
गायब है सुरज
गायब हैं तारें
गायब हो गए
उद्यान हमारे
डूबे शहर प्रदूषण की राख में
लाए थे नेनो हम भी एक लाख में
ब.
प्रयत्न हमारा
हुआ सफ़ल
देश आगे
गया निकल
नेनो छा गयी अमेरिका ईराक़ में
लाए थे नेनो हम भी एक लाख में
सिएटल 425-445-0827
Posted by Rahul Upadhyaya at 4:29 PM
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Labels: news
Monday, March 16, 2009
मनाओ होली, मनाओ सेंट पेट्रिक्स डे
यहाँ और वहाँ में क्या है फ़र्क?
पेश हैं कुछ ताजा तर्क
वहाँ के लोग बनाए घर
यहाँ के बिल्डर्स बनाए हाऊस
वहाँ के बिल पाले चूहें
यहाँ के बिल बेचे 'माऊस'
वहाँ के लोग करे 'मिस्ड कॉल'
यहाँ के लोग करे 'मिस कॉल'
यहाँ का प्रेसिडेंट अभी तक 'मेल'
वहाँ की प्रेसिडेंट एक 'फ़िमेल'
यहाँ है जय हो, वहाँ है 'सेक्सी मामा'
वहाँ मायावती, यहाँ ओबामा
यहाँ है कान्फ़्लुएंस, वहाँ है संगम
यहाँ है मैडॉफ़, वहाँ है सत्यम
यहाँ है प्लेन, वहाँ है रेल
यहाँ है बर्गर, वहाँ है भेल
यहाँ है ब्लो-ड्राय, वहाँ है तेल
वहाँ है ठेला, यहाँ है 'सेल'
वहाँ है आंगन, यहाँ है यार्ड
वहाँ है रुपया, यहाँ है कार्ड
वहाँ का हीरो, यहाँ है 'कूल'
वहाँ की बंकस, यहाँ है 'बुल'
यहाँ है जीज़ज़, वहाँ है शंकर
यहाँ है सलाद, वहाँ है कंकर
यहाँ है दूध, वहाँ है पानी
यहाँ है 'बेब', वहाँ है 'जानी'
यहाँ है पिक-अप, वहाँ है खच्चर
यहाँ है ट्रेफ़िक, वहाँ है मच्छर
वहाँ है पैसा, यहाँ हैं सेन्ट्स
यहाँ है डॉलर, वहाँ हैं सैन्ट्स
यहाँ हैं 'मेन', वहाँ हैं 'जेन्ट्स'
वहाँ है साड़ी, यहाँ हैं पेन्ट्स
वहाँ हैं पंखे, यहाँ है हीटर
यहाँ है मील, वहाँ किलोमीटर
वहाँ है बाल्टी, यहाँ है शावर
वहाँ था शौहर, यहाँ है नौकर
वहाँ है भाई, यहाँ है 'मॉब'
यहाँ जी-पी-एस, वहाँ 'भाई साब!'
यहाँ है रेस्ट-रूम, वहाँ है खेत
यहाँ है बेसबॉल, वहाँ क्रिकेट
वहाँ है बोलिंग, यहाँ है पिचिंग
यहाँ है टैनिंग, वहाँ है ब्लीचिंग
यहाँ है ब्लांड, वहाँ है संता
वहाँ पटाखें, यहाँ है सांटा
वहाँ नमस्ते, यहाँ है हाय
यहाँ है पेप्सी, वहाँ है चाय
यहाँ का लेफ़्ट, वहाँ का राईट
वहाँ की लिफ़्ट, यहाँ की राईड
वहाँ का यार, यहाँ है डूड
वहाँ है सीमेंट, यहाँ है वुड
यहाँ है डायटिंग, वहाँ है घी
यहाँ है 'आहा', वहाँ है 'जी'
वहाँ का इंजीनियर, यहाँ है नर्ड
यहाँ का योगर्ट, वहाँ है कर्ड
यहाँ है डोनट, वहाँ श्रीखंड
वहाँ ठंडाई, यहाँ है ठंड
यहाँ वीकेंड, वहाँ है संडे
वहाँ है होली, यहाँ सेंट पेट्रिक्स डे
मनाओ होली, मनाओ सेंट पेट्रिक्स डे
मारो होम-रन, मारो छक्के
करो फ़्रीक-आउट, चक दो फट्टे
यहाँ और वहाँ में फ़र्क तो ढूंढ़ा
लेकिन हर फ़र्क में विनोद ही ढूंढ़ा
यहाँ है वन, वहाँ है वन,
जहाँ है वन, वहीं 'हैवन'
न कोई 'पास', न कोई 'फ़ेल'
जहाँ न अपना, वहीं है जेल
बनाएँ अपने, बड़ाया मेल
उठाए फोन, भेजी मेल
न कोई गलत, न कोई सही है
खट्टा लगा तो समझा दही है
जीवन जीने की रीत यहीं है
मैं जहाँ हूँ, स्वर्ग वहीं है
सिएटल 425-445-0827
16 मार्च 2009
==============================
St. Patrick's Day = March 17, 2009
होली = March 11, 2009
Posted by Rahul Upadhyaya at 11:18 PM
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Labels: festivals, March Read, March2
Thursday, March 12, 2009
जो है सो है
दुनिया में रोने वालों की कमी नहीं है
मिलती है रोटी तो वो भी पचती नहीं है
स्लमडॉग बनी, तो पुरूषों ने आरोप लगाया
स्लमबीच पर क्यों कोई फ़िल्म बनती नहीं है?
नारी की दुर्दशा पर टप-टप टेसू बहाते हैं जो
मायावती, सोनिया क्यों उन्हें दिखती नहीं है?
नारी की हिमायत करने वालो, मैक्सिम तो देखों
फ़्रिडो है कवर पे, देव की तस्वीर कहीं नहीं है
न नारी है दूध की धुली, न आदमी है पापी
जब तक न हाथ मिलें, ताली बजती नहीं है
सिएटल 425-445-0827
12 मार्च 2009
Wednesday, March 11, 2009
हेप्पी होली
न्यू-यिअर पर 'विश' किया
बर्थ-डे पर 'विश' किया
जब भी कोई मौका आया
मैंने उन्हें 'विश' किया
होली की 'विश' दी तो
हाथ उन्होने खींच लिया
क्रोधित हो उन्होने
मुझे आड़े हाथ लिया
"आप क्यूं बोलते हैं हिंग्लिश?
जब भी आप करते हैं 'विश'
तब ऐसा लगता है कि
आप दे रहे हैं विष"
मैंने कहा,
बस प्लीज़
और न बने लेंगवेज पुलिस
माना आपको संतोष नहीं
पर हिंग्लिश का कोई दोष नहीं
चाहे जैसे किया, पर 'विश' किया
ये 'पॉईंट' तो आपने 'मिस' किया
शुद्ध हिंदी से क्या आस करें?
कौन इसका विश्वास करे?
विश्वास शब्द में भी
विष वास करे
जब आप देते हैं
मुझे शुभकामना
क्या आप चाहते हैं कि
मुझे मिले शुभ काम ना?
तर्क छोड़, एक जहां सुहाना सा बुन ले
और एक परस्पर प्यार का साबुन ले
जिससे ये संकीर्णता का विष 'वाश' करें
और कोई 'विश' करे तो उसका विश्वास करें
सिएटल 425-445-0827
=================
विश = wish; हिंग्लिश = Hinglish; लेंगवेज = language
पॉईंट =point; मिस = miss; वाश = wash
Posted by Rahul Upadhyaya at 1:25 PM
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Monday, March 9, 2009
होली मनाना मना है
ठिठुरती ठंड में
न दिलाओ होली की याद
कांपती है देह
सुनते ही ठंडाई का नाम
बर्फ़ीली हवाओं वाले
इस मौसम में
पागल ही होगा
जो निकलेगा रजाई से आज
ठिठुरती ठंड भगाए
होली की आग
झूमता है मन
पी के भांग का गिलास
नशीली अदाओं वाले
इस मौसम में
पागल ही होगा
जो न रंगे गोरी का गाल
दिन भर चलाना है
हमें गाड़ी यहाँ
प्लीज़ न करो तुम
नशीली भांग की बात
दिन भर सताना है
हमें गोरी तुम्हें
चोली-दामन सा है
भांग और होली का साथ
आए हैं दर पे
यूँ न जाएंगे हम
गुझिया-बर्फ़ी
खा के जाएंगे हम
गुझिया छोड़ो
और तोंद घटाओ
बर्फ़ी छोड़ो
और बर्फ़ हटाओ
जाओ, जाओ
करो कुछ काम जनाब
ऐसे नहीं करते
वक़्त खराब
महंगाई-रिसेशन के
इस माहौल में
शर्म नहीं आती
करते हुए
मौज-मस्ती की बात?
काम, क्रोध,
मद, लोभ
ये चार
संत कहे
खोले नर्क के द्वार
फिर कैसा काम
और कैसी सरकार?
हम नहीं रखते
किसी काम से काम
काम करे वे
जो हैं ज़रुरतों के गुलाम
काम करे वे
जो हैं जी-हज़ूरी के शिकार
हम तो सदा से करते थे
और करते रहेंगे
सिर्फ़ तुमसे प्यार
ठिठुरती ठंड में
न दिलाओ होली की याद
ठिठुरती ठंड भगाए
होली की आग
कांपती है देह
सुनते ही ठंडाई का नाम
झूमता है मन
पी के भांग का गिलास
बर्फ़ीली हवाओं वाले
इस मौसम में
नशीली अदाओं वाले
इस मौसम में
पागल ही होगा
जो निकलेगा रजाई से आज
पागल ही होगा
जो न रंगे गोरी का गाल
ठिठुरती ठंड में …
सिएटल 425-445-0827
9 मार्च 2009
Posted by Rahul Upadhyaya at 2:05 PM
आपका क्या कहना है??
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Saturday, March 7, 2009
महल एक रेत का
टूट गया जब रेत महल
बच्चे का दिल गया दहल
मिला एक नया खिलौना
बच्चे का दिल गया बहल
आया एक शिशु चपल
रेत समेट बनाया महल
बार बार रेत महल
बनता रहा, बिगड़ता रहा
बन बन के बिगड़ता रहा
रेत किसी पर न बिगड़ी
किस्मत समझ सब सहती रही
वाह री कुदरत,
ये कैसी फ़ितरत?
समंदर में जो आंसू छुपाए थे
उन्हें ही रेत में मिला कर
बच्चों ने महल बनाए थे
दर्द तो होता है उसे
कुछ नहीं कहती मगर
एक समय चट्टान थी
चोट खा कर वक़्त की
मार खा कर लहर की
टूट-टूट कर
बिखर-बिखर कर
बन गई वो रेत थी
दर्द तो होता है उसे
चोट नहीं दिखती मगर
वाह री कुदरत,
ये कैसी फ़ितरत?
ज़ख्म छुपा दिए उसी वक़्त ने
वो वक़्त जो था सितमगर!
आज रोंदते हैं इसे
छोटे बड़े सब मगर
दरारों से आंसू छलकते हैं
पानी उसे कहते मगर
टूट चूकी थी
मिट चूकी थी
फिर भी बनी सबका सहारा
माझी जिसे कहते किनारा
सिएटल । 425-445-0827
4 मार्च 2008
Posted by Rahul Upadhyaya at 12:38 PM
आपका क्या कहना है??
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Friday, March 6, 2009
शीत लहर
बाहर है बीस
अंदर है सत्तर
दोनों के बीच है
एक शीशे का अंतर
कितनी है पास
कितनी है दूर
मेरे बगीचे की
उजली वो धूप
थर्मामीटर न होता
तो रखता बाहर कदम
ठंड से न यूँ
मैं जाता सहम
शीशों में क़ैद
गर्म हवा के बीच
कितना बदल जाता है
आदमी का व्यक्तित्व
और ऊपर से हो 'गर
एक बड़ा सा घर
दुनिया जिसे कहती हो
शुभ्र महल
फिर तो चमड़ी का
चाहे जैसा हो रंग
बदल ही जाता है
आदमी के सोचने का ढंग
खिड़की के बाहर
और खिड़की के अंदर
दोनों जहाँ में
बढ़ता जाता है अंतर
सिएटल । 425-445-0827
6 मार्च 2009
Posted by Rahul Upadhyaya at 3:03 PM
आपका क्या कहना है??
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Tuesday, March 3, 2009
डॉक्टर ग़ज़ल प्रसाद
बहुत बिगड़े
और कहने लगे
ये भी कोई ग़ज़ल है?
न इसका सर है
न पैर है
मैंने कहा
शांत,
गदाधारी भीम, शांत
ये जानवर नहीं
महज एक शेर है
कहने लगे
आप बात समझे नहीं
या बात समझना चाहते नहीं
ग़ज़ल की बारीकियाँ
आप सीखना चाहते नहीं
अब देखिए
न मतला है
न मक़ता है
भला ऐसे भी कोई ग़जल कहता है?
मैंने कहा
देखिए
आप बात का बतंगड़ न बनाईए
यूँ मुझ पर इल्ज़ाम पर इल्ज़ाम न लगाईए
न तो इसमें नमक है
और न ही इसे मैंने तला है
फिर भी आप कहते हैं कि
इसमें नमकता है
नम तला है?
कहने लगे
आपकी मसखरी की मैं खूब देता हूँ दाद
लेकिन नहीं पढ़ूँगा
आपकी कोई रचना
आज के बाद
मैंने कहा
आप की खुजली
और आप के दाद
आप ही रखें मियाँ
सदा अपने पास
न तो आप मेरे गुरू हैं
न मैं आपका दास
लिखता हूँ बेधड़क
लिखूँगा बिंदास
रद्दी में रदीफ़ फ़ेंकूँ
कॉफ़ी में घोलूँ काफ़िया
गीत-ग़ज़ल-नज़्म नहीं
न लिखूँ मैं रूबाईयाँ
लिखता हूँ कविता मैं
नहीं बनाता मैं दवाईयाँ
कि नाप-तोल के उनमें डालूँ
कड़वी जड़ी-बूटियाँ
सिएटल 425-445-0827
3 मार्च 2009
Posted by Rahul Upadhyaya at 8:51 PM
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Labels: new, TG, world of poetry
Thursday, February 26, 2009
ज़िंदगी भर नहीं भूलेगी
उनके निर्णय पे निर्भर हमारी औकात की रात
हाय वो रेशमी कालीन पे फ़ुदकना उनका
रटे-रटाए हुए तोतों सा चहकना उनका
कभी देखी न सुनी ऐसी टपकती लार की रात
हाय वो स्टेज़ पे जाकर के गाना जय हो
एक भी शब्द जिसका न समझ आया जज को
फिर उसी गीत को कहते हुए शाहकार की रात
जो न समझे हैं न समझेंगे 'दीवार' की माँ को कभी
जो न सुनते हैं न सुनेंगे गुलज़ार के गीतों को कभी
उन्हीं लोगों के हाथों से लेते हुए ईनाम की रात
अभी तक तो करते थे सिर्फ़ बातें ही अंग्रेज़ी में वो
आज के बाद बनाने भी लगेंगे फ़िल्में अंग्रेज़ी में वो
गैर के सराहते ही मिटते हुए स्वाभिमान की रात
क्या किया पीर ने ऐसा कि धर्म तक छोड़ा उसने?
क्या दिया धन ने हमें ऐसा कि देश भी छोड़ा हमने?
दिल में तूफ़ान उठाते हुए जज़बात की रात
सिएटल 425-445-0827
26 फ़रवरी 2009
(साहिर से क्षमायाचना सहित)
====================शाहकार = कला संबंधी कोई बहुत बड़ी कृति
Tuesday, February 17, 2009
एक तरफ़ा प्यार
न थी
न हैं
न होंगी कभी
सांसों में मेरी
सांसे तेरी
फिर भी सनम
चाहूँगा तुझे
जब तक है
खुशबू
फूलों में तेरी
न थे
न हैं
न होंगे कभी
गेसू तेरे
कांधों पे मेरे
फिर भी सनम
चाहूँगा तुझे
जब तक है
अम्बर पर
बादल घनेरे
न था
न है
न होगा कभी
चेहरा तेरा
हाथों में मेरे
फिर भी सनम
चाहूँगा तुझे
जब तक है
दुआ
हाथों में मेरे
न थे
न हैं
न होंगे कभी
गालों पे तेरे
चुम्बन मेरे
फिर भी सनम
चाहूँगा तुझे
जब तक है
सपनों में
साए तेरे
न थी
न है
न होगी कभी
दुनिया तेरी
दुनिया मेरी
फिर भी सनम
चाहूँगा तुझे
जब तक है
दूरी
तुझसे मेरी
सिएटल,
17 फ़रवरी 2008
Posted by Rahul Upadhyaya at 6:35 PM
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Saturday, February 14, 2009
अमर प्रेम
जब जब तुमसे मिलने आता हूँ
तो सोचता हूँ
तुम न मिलो तो ही अच्छा है
जब जब तुमसे मिलता हूँ
तो सोचता हूँ
तुम जुदा न हो तो ही अच्छा है
मैं इतने दिनों तक
हैरान था
परेशान था
कि तुम ने मुझे स्वीकारा नहीं
तो क्यूँ ठुकराया भी नहीं?
अब समझ में आया कि
असली प्यार तो वही है
जिसमें चाहत अभी बाकी है
तुम मुझसे मिलती रहना
मगर मेरी हरगिज़ न बनना
अब समझ में आया कि
असली प्यार तो वही है
जो वर्जित है
तुम मुझसे मिलती रहना
मगर वैध रिश्ता हरगिज़ न बनाना
सच तो यही है कि
प्रेमी-प्रेमिका के मिलाप के साथ ही
अक्सर प्रेम कहानी खत्म हो जाती है
तुम स्वीकारती
तो चाहत खत्म हो जाती
तुम ठुकराती
तो नफ़रत हो जाती
ये आग जो लगी हुई है
इसे बनाए रखना
शांत कर के
इसे राख हरगिज़ न होने देना
मैं चोरी-छुपे
सब के सामने
तुमसे मिलता रहूँगा
तुम्हें निहारता रहूँगा
तुम्हें चाहता रहूँगा
पर कभी नहीं कहूँगा
कि तुम बहुत सुंदर हो
कि तुम मेरे दिल में बसी हो
कि मुझे तुम से प्यार है
क्यूँकि जो बात हम कह नहीं पाते
वो दिल, दिमाग और ज़ुबान पर
हमेशा रहती है
अगर कह दिया तो
भूल जाऊँगा कि कभी
मैंने तुमसे ये कहा था
न कहूँ तो
हमेशा याद रहेगा कि कभी
मैंने तुम से ये कहा नहीं
Posted by Rahul Upadhyaya at 5:55 PM
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